सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

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सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Thursday, August 5, 2010

अमीर खुसरो

अमीर खुसरो पर हमारी पहली पोस्ट हमने शुरूआती के दौर में लिखी थी.उसे पसंद भी किया गया. उसी कड़ी में एक और पोस्ट एक नए अंदाज़ में प्रस्तुत है.
आज आधुनिक कविता में कितने प्रयोग हो रहे हैं,कविता के फॉर्मेट से लेकर भाषाई प्रयोग तक. गुलज़ार साहब ने अपनी एक नज़्मों की सीरीज़ के उंवान ही अंगरेज़ी में दे रखे हैं. उनका कहना है कि फिल्मों की भाषा अंगरेज़ी होने की वज़ह से उनके सोच की भाषा भी अंगरेज़ी हो गई है, लिहाजा कुछ ख़याल वो उसी ज़ुबान में सोचते हैं. और फिर अंगरेज़ी के कई लफ्ज़ उन्होंने अपनी शायरी में यों पिरो दिए हैं कि कोई जो दूसरा लिखे तो दूसरा ही लगे.
लेकिन दो अलग अलग भाषाओं को मिलाकर, एक ही बहर में रखते हुए, किसी ने शायरी करने का हौसला दिखाया है तो वो हैं अमीर खुसरो. मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं, इसलिए मैंने नहीं देखा यह प्रयोग कहीं भी. अमीर खुसरो ने लिखा – फ़ारसी और हिंदवी को मिलाकर. क़ाफ़िया, रदीफ़ और बहर की रुकावट के परे.
आज अपने कान को हाथ लगाते हुए और उस महन आत्मा से माफ़ी की दरख़्वास्त करते हुए, मैंने भी एक मामूली सी कोशिश की है कि उस शायरी को अपने अल्फ़ाज़ का जामा पहना सकूँ.
इसे तर्जुमा न समझकर उस अज़ीम शायर को मेरी श्रद्धांजलि समझें:



ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां

मेरी बदहाली से क्यों तुम बेखबर रहते हो यार
क्यों चुराते हो नज़र और क्यों बनाते बात हो
अब सबर भी हद से बाहर हो गया है मेरी जान
अपनी छाती से लगा लो तब ही कोई बात हो.
%%%
शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां

हिज्र की रातें तो ज़ुल्फों से भी काली आज हैं
दिन विसाल-ए-यार का है ज़िंदगी सा मुख्तसर
देख ना पाऊँ जो अपने प्यारे से मह्बूब को
कैसे काटूँ काले डँसते लम्हे सारी रात भर.
%%%
यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां

आज दिल पे हाय दो आँखों ने जादू डालकर
सैकड़ों धोखे दिए और लूट ले गये सारा चैन
फिक्र किसको है मेरी, कोई तो जाकर कह भी दे
मेरे उस मह्बूब को, मेरे तड़पते दिल के बैन.
%%%
चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां

शमाँ सा जलता हुआ, हैरान ज़र्रे की तरह
मैं भटकता हूँ यहाँ पर इश्क में जलता हुआ
नींद आँखों मे नहीं और खो गया है सारा चैन
तुम नहीं आए, तुम्हारा खत भी ना आया मुआ.

%%%

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां

उस विसाल-ए-यार के एक रोज़ की खातिर सनम
जिसने खुसरो को लुभाया है न जाने कितने साल
दिल को अपने क़ाबू में रखा है इस उम्मीद  पे
पाँव में जाऊँगा उनकी सेज पर, होगा विसाल.

21 comments:

मनोज कुमार said...

वाह!
ग़ज़ब भाई!!
बहुत अच्छा।
दोनों प्रस्तुति, लाल वाला भी, नीला वाला भी, लाजवाब।
दिल हरा-हरा हो गया।

sonal said...

anootha prayaas..plz jaari rakhiyega

राजेश उत्‍साही said...

चैतन्‍य जी प्रयोग बहुत अच्‍छा लगा। और आपकी गुस्‍ताखी और हौसला भी। यहां आप यह स्‍पष्‍ट लिख दें कि लाल रंग में लिखी हुई पंक्तियां मूल खुसरो जी की हैं, तो बेहतर रहेगा।
दूसरी बात मुझे लगता है आप आखिरी पद में अपने शब्‍दों में ढालने में थोड़ा सा चूक गए हैं। आखिरी पंक्ति में। मेरी समझ से खुसरो भी दर्शन के उस्‍ताद थे। उनके इस पद की आखिरी पंक्ति में- जो जाये पांव, पिया के खटियां - में सेज पर पांव रखने का भाव नहीं है,वरन पिया की सेज पर पिया के पैरों में जाने का भाव है। हो सकता है मैं ही गलत होऊं। पर सेज पर पांव रखने में जो क्रूरता झलकती है वह कुछ जम नहीं रही।

स्वप्निल तिवारी said...

aur sabse badi baat ye hai ki ..is ajeemo o qadeem shayr ki shari se aaj bhi log mutaassir hue bina nahi rah sakte ......sahi mayne me ameeer khusro se hi pata chalta hai ki do bhashaon ka vilay kitni aasani se kiya ja sakta hai ...aur kaheen bhi ye baat khatakti nahi ..... kabeer ki bhsha bhi kai bhashaon ka mel thi ...isliye use "khichadi " ya saddhukkadi " bhasha kaha gaya....

:)ye series chalate rahiye ...:)

VICHAAR SHOONYA said...

मेरी उर्दू कमजोर है अतः आपके अनुवाद ने मेरे लिए इस बेहतरीन शायर कि कठिन सी लगाने वाली कविता को समझना आसान कर दिया. धन्यवाद.

soni garg goyal said...

आपने ऐसा प्रयोग पहले भी किया था तब किसी उर्दू कविता को हिंदी में ढाला था ( अपने इजारबंद से नाडा तू डाल रे ) यही था ना ? आज ये रचना पढ़ कर पहले वही रचना याद आ गयी ! वैसे आज की भी रचना अच्छी है !

soni garg goyal said...

सॉरी रचना नहीं अनुवाद ! सही है ना !

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Sach kahun Salil bhaiya, mujhe kuchh nahi samajh aaya........:(
lekin fir bhi padh kar achchha laga........:)

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा प्रयास...आनन्द आया.

प्रवीण पाण्डेय said...

समझने का समुचित प्रयास कर रहा हूँ और यकीं मानिये, अच्छा लग रहा है।

Apanatva said...

keep it up.
well done .

Arvind Mishra said...

आपने चाँद छूने की एक पुरजोर कोशिश की है -और छू भर तो लिए ही .
बहुत बधाई !

shikha varshney said...

अरे वाह ये तो बहुत अच्छा किया ..विद्द्यार्थी जीवन में खुसरो को पढ़ा था थोडा बहुत पर समझ में कम ही आया :)
आज आपकी पोस्ट ने वो कमी पूरी कर दी ..बहुत शुक्रिया.

SHANT RAKSHIT said...

ORIGINAL LIKHNE WAALE KHUSRO SAHEB KO SALAAM AUR USSE HUMKO ISS KHUBSOORAT ANDAAZ MEIN PAHUCHANE KE LIYE APKO DOUBLE SALAAM

सम्वेदना के स्वर said...

@राजेश उत्साहीः
आपके सुझाव के बाद मुझे भी लगा कि अर्थ ठीक नहीं व्यक्त हो रहा है...बदल दिया है. धन्यवाद!

Satish Saxena said...

इस लेख को मैं आपकी बेहतरीन पोस्ट में से एक मानता हूँ ! ! पढ़ कर आनंद आ गया ! मुझे ख़ुशी है की आप जैसे विद्वान् कलाकार को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ !
हार्दिक शुभकामनायें कि इसी प्रकार ब्लाग जगत को आलोकित करते रहें !

दिगम्बर नासवा said...

ग़ज़ब सर ... अमीर ख़ुसरो की रचनाओं को मतलब के साथ पढ़ने का मज़ा कुछ और ही है ... दूना कर दिया मज़ा आज तो ...

प्रियंका गुप्ता said...

जाने कब से पसंद थी ये और सोचती थी...काश इसका पूरा मतलब समझ पाती...| इस अनुवाद के लिए तो आपका आभार बनता ही है...|

ऋता शेखर 'मधु' said...

वाह ! बहुत सुंदर पोस्ट...ब्लॉग की फॉलोवर हूँ और आज यह खास पोस्ट गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी के माध्यम से मिली। आभार।

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

एक गीत --" ज़िहाले मस्कीं ( मैं उसे मस्ती समझती थी) मकुन ब रंजिश .." सुनकर बड़ी खीज होती थी कि जब ऐसे बोलों का मतलब ही समझ न आए तो क्यों लिखते है? यह आलेख पढ़कर वह खीज़ गायब हो गयी. अब कयों नहीं आ रहे ऐसे आलेख?

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

पूरी रचना का कमाल अनुवाद किया है

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