सम्वेदना के स्वर

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Wednesday, August 25, 2010

पीपली लाइव के नारी पात्र [समापन किस्त]

पीपली लाइव की कोई भी समीक्षा उसके सभी आयामों को छू नहीं सकती। हमने अब तक फिल्म को ग्रामीण परिवेश, राजनीतिक परिदृश्य और मीडिया की पृष्ठभूमि में मूल्यांकित करने की कोशिश की है । लेकिन हमसे जो कुछ छूट गया वो दर्शक की सम्वेदना पर निर्भर करता। आज इस समीक्षा के समापन अंक में हम इतना ही कहना चाहेंगे कि हर भारतीय को यह फिल्म जरुर देखनी चाहिए, जिससे न केवल उसकी दबी हुई भावनाओं का रेचन होगा बल्कि उसे जिंदगी के बहुआयामी पक्ष को समझने में भी मदद मिलेगी।

इस पूरी फिल्म में सिर्फ तीन ही नारी पात्र है. पहली एक न्यूज़ चैनल की रिपोर्टर – नंदिता, दूसरी नत्था की पत्नी – धनिया और तीसरी बुधिया और नत्था की माँ! जहां नंदिता आज की इन्डियन कॅरियर ओरिएंटेड महिला को रेप्रेसेंट करती है, वहीं नत्था की पत्नी एक देसी भारतीय महिला का प्रतिनिधित्व कर रही है.

नंदिता मलिक

मनोजः नंदिता मल्लिक आधुनिक शहरी नारी का प्रतिनिधित्व करती है। वह व्यवसायिकता और अपने व्यवसाय में सबसे आगे बने रहने के सारे हथकंडे अपनाती दिखाई देती है।

सोनीः ये वो महिला है जिसकी संवेदनाएँ, अपने ऊंचाई छूते कॅरियर में मर गयी है! पूरी फिल्म में नंदिता ने वही किया जो आज की मीडिया कर रही है! ये शहरी महिला का वो किरदार है जिसे अपने काम के सामने ना तो किसी के दुःख नज़र आए, ना किसी का दर्द. इसकी नज़र है, तो सिर्फ अपने चैनल की टीआरपी पर और अपनी परफोर्मेंस पर! इस कॅरियर वुमेन ने अपने प्रतिद्वंदी चैनल को टक्कर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. बस लीड लेने के लिए, ये कई तरह के हथकंडे अपनाती नज़र आई ! जिस लोकल न्यूज़ रिपोर्टर को शायद ये अपने सामने देखना भी ना चाहे उसी राकेश के साथ ये न्यूज़ बनाने निकल पड़ी!

चैतन्यः अगर नंदिता को देखें तो, वह एक ईनामी टीवी एंकर हैं! उनके लिये मेहनत और काम का मतलब है, प्राइम टाइम पर चलने वाली न्यूज़ स्टोरी, बाइट्स, बैकग्राउंड म्यूज़िक, और कैमरे से लिये चित्र. इनसब को कुछ ऐसे पेश कर देना कि सारी “आई-बाल्स्” बस उसे ही मिलें. महंगी नौकरी और सत्ता से नज़दीकी सम्बन्ध के कारण वह इंडिया की प्रगति से गदगद है, दिखावे के जीवन में, सम्वेदनाएँ ऐसी भोथरी कि भूख, गरीबी, बेरोज़गारी जैसे शब्द, टीवी डिबेट में प्रतिद्वन्दी को पछाड़ने के खूबसूरत हथियार हैं या टीवी डाक्यूमैंटरी के विषय! लेकिन बाबज़ूद इसके, पुरुष को उन्हीं के खेल में मात देने का एक जज़्बा भी उसके पूरे व्यक्तित्व का हिस्सा है. मैं व्यक्तिगत रूप से इसे आधुनिक नारी की, पुरुष के प्रभाव से मुक्त होने की प्रक्रिया का एक संक्रमण काल ही मानता हूं, जन्मों जन्मों की परतंत्रता के कारण, अभी उसका रुख प्रतिक्रियावादी है, लेकिन जब यह सहज होगा और नारीत्व इसमें से झरेगा तो बहुत अनूठी सम्भावानायें मिलेंगी. देखियेगा! दो या तीन पीढ़ी की आर्थिक स्वतंत्रता पूरी नारी जाति का इतिहास बदल देगी.

अम्मा

सोनीः ये वो महिला है जिसे अपने बेटे की आत्महत्या की खबर सुनकर भी कोई अफ़सोस नहीं होता! इसकी बहु सही ही कहती है की सारी कमाई इसके इलाज़ में लग गयी घर क़र्ज़ में डूब गया लेकिन ये माँ भी जानती है की उसका बेटा आत्महत्या कर ही नहीं सकता, बल्कि उसने तो एक जगह कहा भी है की अगर यमदूत भी उसे लेने आए तो भी नत्था नहीं जायेगा ! शायद इसलिए ये भी अपनी बहु की ही तरह पूरी अपने घर में लगे मेले को मूक दर्शक बनी देखती रही ! लेकिन इसने इस मेले का जम कर फायदा उठाया सभी से बीडी मांग कर ! फिल्म के आखिर में जब नत्था गायब हुआ तब भी इस महिला के चेहरे पर कोई अफ़सोस छलकता नज़र नहीं आया ! पूरी फिल्म में इसने सास होने का बखूबी फ़र्ज़ अदा किया है अपनी बहु को बेहिसाब गलिया दे कर ! फिल्म के अंत में भी इसका कहना यही था की जो हुआ उसकी बहु की वजह से हुआ ! ये थी एक देसी भारतीय सास!

चैतन्यः चारपाई पर पड़ी नत्था-बुधिया की माँ का किरदार बहुत रोचक अभिवक्ति है, एक ग्रामीण औरत और उसके अभिशप्त बुढापे की. गरीबी की मार बिना आवाज़ उसकी कमर तोड़ गयी और परिवार को कर्ज़ के बोझ में डाल वह हमेशा के लिये बिस्तर से जा लगी. फिर भी ज़माने की हर शै पर उसकी नज़र है यह अलग बात है कि बोलने के सिवा वो कुछ नहीं कर सकती अब, कमज़ोर नज़र बहुत दूर तक नहीं देख सकती इस कारण हर समस्या का कारण उसके लिये बहु ही है, जब भी मुहँ खोलती है एक भद्दी गाली ही निकालती है. वास्तव में उसका गुस्सा कभी न सुलझने वाले हालात पर तो है ही, खुद की बेबसी पर भी है. ग्रामीण भारत में पैदा होने की बेबसी.

मनोजः नत्था की अम्मा, जो पूरी फिल्म में चारपाई पर ही दिखाई देती है, जिसकी बिमारी के चलते नत्था और बुधिया को कर्ज से दबना पड़ा । धनिया इसके लिए सास को जिम्मेवार मानती है और सास बहु में इसके लिए बहस भी होती है ; तो वहीं सास अपनी सारी बेबसी और लाचारी का जिम्मा बहू के सिर मँढ़ती दिखाई देती है। मीडिया के साथ जबरदस्ती तैयार की गई उसके साथ बातचीत में व्यवस्था के प्रति आक्रोश भी दिखाई देता है। सास के मुख से फिल्म में जो संवाद कहलवाए गए हैं, वह हमारी बेड़ियों के सूचक हैं; अभाव और तंगहाली में जी रहे परिवारों के रोजमर्रा जीवन का दर्पण है.

धनिया

मनोजः फिल्म में नारी का रूप परम्परागत भारतीय नारी से बदला-बदला सा है । फिल्म के आरम्भ में ही नायक नत्था की पत्नी धनिया के तेज और तर्रार तेवर देखने को मिलते हैं, जब नत्था और उसका अविवाहित बड़ा भाई बुधिया बैंक से यह खबर लेकर लौटते हैं कि उनकी जमीन नीलाम हो जाएगी, क्योंकि वे ऋण चुकाने में असमर्थ हैं । यहाँ मुझे डॉ. हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा के कुछ अंश स्मरण हो आए हैं कि पुरुष के ऐसे काम धंधे को नारी समर्थन कम ही मिलता है, जिससे चार पैसे की आमदनी न हो । पुरुष भावना पर जी सकता है, नारी नहीं धनिया में घर चलाने में आधुनिक नारी की मानसिकता दिखाई पड़ती है और इसके लिए वह अपना आक्रोश मीडिया कर्मियों के साथ भी बहुत ही तेज-तर्रार ढ़ंग से रखती है। फिल्म में कहीं भी नारी को रोता हुआ नहीं दिखाया गया है, वहाँ भी नहीं जब कि रोना एक स्वाभाविक क्रिया हो सकता था अर्थात नत्था के मरने की खबर पर भी. धनिया परंपरागत स्त्रियों की तरह चारदीवारी में कैद नहीं है. वह बोलना जानती है तो वहीं अकर्मण्य भी नहीं है । घर से बाहर जाकर मेहनत कर पैसा कमा अपने पति और जेठ से कहीं आगे दिखाई पड़ती है ।पैसे की ताकत को वह बखूबी समझती है । जेठ के साथ कठोर से कठोर व्यवहार करते हुए भी पति की मृत्यु के बाद वह उसके प्रति नरम पड़ जाती है, यह कहीं न कहीं आज भी स्त्री की पुरुष पर निर्भरता को दर्शाता है ।

सोनीः यह एक ऐसी महिला है जो चाहे तो अपने घर में लगे मेले को एक झटके में ख़त्म कर सकती है और उसके आगे नंदिता जैसी महिला भी एक बार शायद टिक ना पाए! लेकिन उसके हाथ अपने परिवार के सामने बँधे नज़र आते है, खास तौर पर अपनी सास के सामने! जो हर छोटी बड़ी बात के लिए अपनी बहु पर पुरानी फ़िल्मी गालियों की बौछार करती हुई नज़र आती है ! नत्था की पत्नी को शायद यह भी विश्वास था कि नत्था आत्महत्या नहीं करेगा, इसलिए शुरुआत को छोड़ कर, पूरी फिल्म में उसे अपने पति की चिंता करते हुए कहीं नहीं दिखाया गया. वो अपने घर में लगे मेले के दौरान भी अपने घरेलू कामो में व्यस्त ही नज़र आई! हाँ उसने कई बार बुधिया की चालाकियो का जवाब ज़रूर देने की कोशिश की लेकिन हर बार असफल रही!

चैतन्यः इंडिया की नंदिता के समकक्ष है, भारत की धनिया, नत्था की पत्नी, घर की धुरी जिसकी चाक से सारा कुटुम्ब बँधा है. गरीबी-गुरबत से जूझने का अटूट हौसला है उसमें. अकेले अपनी लडाई लड़ तो रही है, पर उसके पास विकल्प बहुत सीमित हैं. यही कारण है कि नत्था की मृत्यु के बाद वो अपने जेठ बुधिया के प्रति नरम हो जाती है, एक अदद पुरुष की छाया की दरकार उसे, कुछ नहीं तो सामाजिक सुरक्षा देती है. इस मज़बूरी को वह गहराई से समझती है. बाज़ार को भगवान मानने वाले आज के इस युग में, धनिया का भविष्य, नंदिता भी हो सकता है यदि इंडिया का थोड़ा “भगवान” (बाज़ार) उसके भी हाथ आ जाये, वरना वह भी अम्मा की तरह खटिया की तोडेगी !

तकनीकी पहलू

सलिल : फिल्म की निदेशिका अनुषा रिज़वी और सहयोगी उनके पति महमूद फारूकी का समाचार चैनेल में काम करने का अनुभव फिल्म में फ्रेम दर फ्रेम दिखाई देता है. ख़ास तौर पर मीडिया की गतिविधियों का फिल्मांकन इतनी विश्वसनीयता से किया गया है कि दर्शक मीडिया के दोगलेपन पर कभी स्तब्ध रह जाता है और कभी उपहास उड़ाता है. और इसका श्रेय पूरी तरह अनुषा को और उसकी ईमानदार अभिव्यक्ति को जाता है.

अनुषा के अतिरिक्त, फिल्म के सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में स्व. हबीब तनवीर की छवि दिखती है. जिन्होंने हबीब तनवीर के मंचित नाटक देखे हैं, वो इस पूरी फिल्म को रंगमंच पर घटित होता अनुभव करते हैं. यहाँ फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने, हबीब तनवीर साहब की पवित्रता को बनाए रखा है.सारे कलाकार इतने स्वाभाविक प्रतीत होते हैं कि विश्वास ही नहीं होता कि वे अभिनय कर रहे हैं. सम्वादों की भाषा और उनका निर्वाह कहीं बनावटी नहीं दिखता है.

फिल्म के गीत संगीत के विषय में कुछ भी कहना पर्याप्त नहीं होगा. हबीब तनवीर के नाटकों की तरह गाने फिल्म का हिस्सा न होते हुए भी फिल्म का अविभाज्य अंग बन जाते हैं. गीत और संगीत स्थानीय कलाकारों द्वारा लोक संगीत पर आधारित है. जहाँ "महँगाई डायन" सामयिक व्यंग्य प्रस्तुत करता है, वहीं "चोला माटी का " कबीर के "साधो ये मुर्दों का गाँव" की याद दिलाता है.

फिल्म के सम्वादों में गालियों का प्रयोग दिखता है, शायद इसी कारण इसे ए सर्टिफिकेट मिला है. लेकिन यहाँ मैं पुनः डॉ. राही मासूम रज़ा के साथ खड़ा हूँ, क्योंकि फिल्म में पहली बार गाली बके जाने पर खिसियानी हँसी गूँजती है, किंतु पुनरावृत्ति होने पर सन्नाट. दर्शक गालियों को वैसे ही स्वीकारते हैं जैसे आम तौर पर गली, मुहल्लों और सड़कों पर. जहाँ सारा समाज ही ए सर्टीफिकेट का हक़दार हो वहाँ,इस फिल्म के सेंसर सर्टिफिकेट की परवाह किए बग़ैर कम उम्र बच्चे भी अभिभावक के साथ दिखते हैं.

कुल मिलाकर यह समीक्षा लिखकर भी हम यह नहीं कह सकते कि यह संपूर्ण हुई. एक फिल्म जिसने हमें झकझोरा, हमारी बात की तस्दीक की, उसके लिए हमारा इतना लिखना एक वकालत है उस भारत की जिसके लिए इण्डिया से कोई सोच उपजी है, भले ही यह भी अंत में आर्थिक सोच हो,किंतु फिलहाल दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है.

9 comments:

शिवम् मिश्रा said...

यह समीक्षा लिख आपने हम लोगो को भी काफी जानकारी दे दी है फिल्म के बारे में .......जैसा कि पहले भी कह चुका हूँ इस फिल्म को देखने की लालसा बडती ही जा रही है !

kshama said...

Shayad is waqt itnee intense sameeksha jazb karneki halat me nahi hun1
Itna kahungi ki,Nandita jaise mard adhik hain....

मनोज कुमार said...

हम त पिछलके पोस्ट में कह दिए थी कि ई समीछा जे है से मील का पाथर है। अब एकरा आगे कहने को कुच्छो नहीं है।
हां आज रात मे फ़िल्म देखेगे ई मन बना लिए हैं।

उम्मतें said...

@ संवेदना के स्वर बंधुओ ,
फिल्म के स्त्री पात्रों में से समाज के तीन आयाम अभिव्यक्त होते हैं ! सास और बहु के परम्परागत वैमनष्य की ओट से झांकता फटा चिथा / कृशकाय / दरिद्र भारत अपनी दो अलग पीढ़ियों /काल को एक साथ अभिव्यक्त करता है ! लेकिन तीसरा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयाम मीडिया का है जिसे अवसरवादी / लम्पट /महत्वाकांक्षी इंडिया के रूप में अभिव्यक्त करते समय एक अन्तर्निहित व्यंग भी परोसा गया है कि भारत के परजीवी चूषक के रूप में मीडिया उर्फ इंडिया एक कापुरुष है यानि कि एक स्त्रैण प्रवृत्ति ! सो मेरे हिसाब से नंदिता एक प्रवृत्ति हुई और अम्मा तथा धनिया दो दशायें , जोकि प्रवृत्ति की मुखापेक्षी होकर रह गई हैं !

आपने बढ़िया समीक्षा की है तभी तो मैं भी ये सब सोच / कह सका :)

सम्वेदना के स्वर said...

@अली सा!आपकी इस संक्षिप्त टिप्पणि ने हमारी इस पोस्ट/समीक्षा में एक नया आयाम जोड़ दिया है...हमारा इस विषय पर लेखन सार्थक हुआ...आपकी यह टिप्पणी और आगामी टिप्पणियाँ हमारे लिए बहुमूल्य हैं/होंगी...हृदय से आभार आपका!!

संजय @ मो सम कौन... said...

यह सामूहिक चर्चा चलाकर आपने बहुत अच्छा काम किया है, ’पीपली’ की तो समापन किस्त आ गई लेकिन और विषयों पर भी जारी रखें इसे।
निवेदन है।

शिवम् मिश्रा said...

एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !

राजेश उत्‍साही said...

असल में किसी भी रचना,किताब या‍ फिल्‍म की समीक्षा का उद्देश्‍य सिर्फ इतना भर नहीं होता है कि वह उसे पढ़े जाने या देखे जाने की उत्‍कंठा जगाए। वरन असली उद्देश्‍य तो यह है कि वह उसके छुपे पहलुओं पर रोशनी डाले। कई बार रचनाकार या‍ फिल्‍मकार भी नहीं जानता कि वह क्‍या कह गया है। इस मायने में पीपली सचमुच बहुत कुछ ऐसा कहती है जो उसके फिल्‍मकार ने शायद सोचा भी न हो।
बहरहाल इस तरह का प्रयास जारी रहना चाहिए। यह ब्‍लाग की दुनिया में बेवजह एक दूसरे की बिना मतलब वाही वाही करने से कहीं बेहतर है। बधाई।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

इस फिल्म को देखना चाहता हूँ इसलिए इसकी समीक्षा भी नहीं पढ़ना चाहता..हाँ देखने के बाद जरूर पढूंगा..समय है कि मिल ही नहीं रहा...
आपने बहुत विस्तार से लिखा है...पढ़ना तो पड़ेगा ही.

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