दो बड़ी मशहूर कहावतें या कहें बड़े संगीन इल्ज़ाम हमेशा लगते रहे हैं लोकतंत्र के ऊपर. पहली बात तो ये कि लोकतंत्र वो प्रक्रिया है, जहाँ जनता के प्रतिनिधि चुनकर आते हैं, उन लोगों के द्वारा, जो मतदान नहीं करते. इस इल्ज़ाम के जवाब में हमने अपनी दलील पिछली पोस्ट पर दी.
आज बारी है लोकतंत्र से जुड़ी उस दूसरी कहावत की जहाँ कहा गया है कि जम्हूरियत वह तर्ज़ेहुक़ूमत है जहाँ इंसानों को तोला नहीं, गिना जाता है. सच है यह कहावत, और अगर इसे कटाक्ष मानें तो बहुत सच्ची बात है और अगर स्टेटमेण्ट मानें तो एक अर्धसत्य! आइए देखें इंसानों की गिनती का यह खेल.
एक बार फिर आँकड़े निर्वाचन आयोग की वेबसाईट पर उपलब्ध लोकसभा चुनाव 2009 केः
एक, गिनती में कुल मतदाताओं की संख्या (72 करोड़) के छठवें हिस्से से भी कम (11.91 करोड़) होते हुए भी एक दल 72 करोड़ मतदाताओं और 120 करोड़ जनता के ऊपर राज कर रहा होता है और उस पर तुर्रा ये कि ख़ुद को उसी जनता का सेवक बताता है.
दो, तहलका यह मचा है कि हम मशीनों के सहारे वोटिंग करके / कराके प्रगतिशील हो गए हैं, लेकिन बहुमत की इस छ्द्म अवधारणा का क्या, जो चीख़ चीख़ कर यह एलान कर रही है वह बहुमत सिर्फ एक अल्पमत है (16. 61% कुल मतदाताओं की संख्या का ).
तीन, अगर बहुमत की ही सरकार है, तब तो बहुमत यह कहता है कि 83.39% (कुल मतदाताओं की संख्या का) या 71.45% (कुल मतों का) मत उस दल के पक्ष में हैं ही नहीं. फिर कैसे बनी यह बहुमत की सरकार. यह तो वही बात हो गई कि मुट्ठी भर अंग्रेज़ पूरे भारतवर्ष पर शासन करते रहे, या अल्पसंख्यक गोरे दक्षिण अफ्रीक़ा में.
चार, यदि दो प्रमुख पार्टियाँ, कॉन्ग्रेस और भाजपा के मतों और सीटों पर नज़र डालें तो और भी आश्चर्य होता है. एक ओर 8 करोड़ मतों का अर्थ भाजपा के लिए 116 सीटें है, वहीं दूसरी ओर ओर उनसे सिर्फ 50% अधिक वोटों की मदद से कॉन्ग्रेस को लगभग 100% अधिक सीटें (206) मिल जाती हैं.
तालिका में दिये गए आँकड़े क्या विश्व के इस “महानतम् लोकतंत्र” पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाते हैं?
लोकतांत्रिक जनादेश के नाम पर देश के आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक ढ़ाँचे को छिन्न भिन्न करने वालों से क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिये कि भारतीय जनता ने यह अधिकार वास्तविक रूप से उन्हें दिया भी है या यह लोकतंत्र का अपहरण है?
एक आवश्यक सूचनाः इन आँकड़ों को गणित के सूत्रों के आधार पर पढना, समय की बरबादी के अतिरिक्त कुछ नहीं है, क्योंकि जहाँ दो और दो पाँच बनाए जाते हों, वहाँ सारी गिनतियाँ बेकार साबित होती हैं.
क्षेत्रीय पार्टियों का गणित और भी चौंकाने वाला है. यह रहे क्षेत्रीय पार्टियों के आँकड़ेः
कैसे 120 करोड़ की जनसंख्या वाले देश मे मात्र कुछ लाख वोटों को हथियाकर, क्षेत्रीय पार्टियाँ लोकतंत्र के इस महाभोज का आनन्द लेने दिल्ली पहुँच जाती हैं, उसकी एक बानगी इस तरह है :-
• बिहार के लालू यादव की आरजेडी को कुल वोट मिले मात्र 50.80 लाख और सीटें मिलीं 4, जबकि नीतिश कुमार की जेडी (यू) को कुल वोट मिलें 59.36 लाख और सीटे मिलीं 20.
यानि वोटों की बढ़त सिर्फ नौ लाख और सीटें बढ़ गयीं पाँच गुना।
• उत्तर प्रदेश में तो स्थिति और मज़ेदार है. मायावती की बसपा जहाँ 2.57 करोड़ वोट लेकर 21 सीटें ला पायी,वहीं मुलायम सिंह की सपा ने 23 सीटें कुल 1.34 करोड़ वोट लेकर ही हासिल कर लीं।
बसपा के लिए वोट ज़्यादा, सीटें कम!
• तमिलनाडु में जयललिता की पार्टी एडीएमके को कुल वोट मिलें मात्र 69.53 लाख और सीटे हासिल की 9 जबकि करूणानिधि की डीएमके कुल 76.25 लाख वोट लेकर भी दो गुना यानि 18 सीटें जीत लीं।
वोटों की गिनती समान, वोटों का मूल्य समान, लेकिन असली मूल्य तो सीटों की संख्या का है. वो बराबर नहीं.
• पश्चिम बंगाल में 1.33 करोड़ वोट लेकर ममता बनर्जी की तृणमूल पार्टी को मिली 19 सीटें तो 2.22 करोड़ वोट लेकर सीपीआई (एम) कुल 16 सीटे ही जीत पायी।
क्या आपको समझ आया कि जनता मैंडेट क्या था!!
• केरल में मुस्लिम लीग मात्र 8 लाख वोट हासिल करके 2 सीटें जीत जाती है तो तेलंगाना में 26 लाख वोट हासिल करने के बाद भी मात्र 2 सीटें पाती है। जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस मात्र 5 लाख वोट लेकर 3 सीटं लोकसभा में पा जाती है। महाराष्ट्र में शिवसेना मात्र 62.87 लाख वोट लेकर 11 सीटें जीत जाती है तो आन्ध्र प्रदेश में 1.04 करोड़ वोट लेकर तेलुगू देशम को मात्र 6 सीटे ही मिल पाती हैं।
यदि देश के संसाधनों पर सबका समान हक है तो फिर ऐसे विरोधभास क्यों?
भारतीय लोकतन्त्र का यह कैसा अबूझ गणित है, जिसमें एक वोट की कीमत अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है. किंतु जैसे ही यह सारे वोट सीटों में परिवर्तित हो दिल्ली पहुँचते हैं, उनके मान बराबर हो जाते हैं और शुरू हो जाती है गिनती, दो और दो पाँच करने की.
बचपन में कितनी दफ़ा पढ़ा है कि अगर आठ घोड़ों की कीमत रु. 500 दी हुई है, तो पाँच घोड़ों की कीमत कैसे निकाली जाती है. आज अगर यही सवाल हल करना हो, तो पसीने छूट जाएँ. क्योंकि ये तो अब समझ में आया है कि एक जैसे दिखने वाले घोड़ों की कीमत हमेशा बराबर नहीं होती, इस सवाल का हल तभी सम्भव है जब यह पता हो कि घोड़ा किस प्रदेश का है, और कौन सी नस्ल का है.
(इस कड़ी में हमारी अगली समापन पोस्ट में चर्चा होगी, वैकल्पिक समाधानों की, इस सन्दर्भ में आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा )
18 comments:
देश के पहले चुनाव जो 1951 से शुरु होकर 1952 में समाप्त हुये थे, उनमें भी हालात कमोबेश यही थे। कुल मतदान का 45% लेकर नेहरु की कांग्रेस को तीन चौथाई से अधिक सीटें मिली और 10% से कुछ अधिक वोट लेकर आचार्य नरेन्द देव की सोशलिस्ट पार्टी को बामुश्किल 15 सीटें मिलीं।
Sir!! aapne bahut detailed jaankari di hai......lekin iske liye kya kiya jana chahiye, ye nahi bataya aapne?
mujhe lagta hai, ham jis prajatantrik desh me rahte hain uski praja ko hi sochna parega, aur jab tak ye sambhav nahi hoga, aise hi alp-sankhyak votes lekar sarkaren banti rahegi.......
aap calculate kar ke dekh lena, jab congress ne 450+ seat liya tha, sayad uss samay bhi wo 50% vote nahi le payee hogi.....
iske liye kuchh nahi kiya ja sakta!! jab tak vote percentage badhta nahi .....
but isko sample voting to mana hi ja sakta hai.........:)
आकड़ो का प्रस्तुतीकरण सब खेल रचता है... कहाँ कौन कैंडिडेट होगा.. किस जाति विशेष का होगा.. किस धर्म का होगा... आदि आदि... मतदाता का उदासीकरण सबसे बड़ा खलनायक है .. अच्छा आलेख है लेकिन जब तक कोई विकल्प सामने ना हो चर्चा ना तो सार्थक होगी ना ही पूरी.. अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा... डिवाइड एंड रुल सत्ता का तब भी मंत्र था अब भी...
Baba re baba...jitna samajhte hain hum log usse kaheen jyada golmal hai...hairatangez aankadon ne to dimagi pech hila diye... Agli kadi ka intezar hai ab...
ये राजनीति की रैट रेस है, या सत्ता की भेड़चाल है या घोड़ों की ख़रीद फ़रोख़्त है... भई साहब ये आपने लोकतंत्र का पोस्टमॉर्टेम किया है और इसे किडनैप करके ऐनिमल फार्म में रख दिया है. इन गिनतियों के बाद तो हम अपनी सारी गिनती भूल गए!! जब ये सौदा इतना फ़ायदेमंद है और गणित इतना कठिन तो अपुन को नहीं लगता कि कोई भी माई का लाल सत्ता के अंदर रहकर समें सुधार की बात करेगा. वक़्त आ गया है कि सब तूतियाँ बजाना शुरू कर दें वर्ना नक्कारखाने में कोई नहीं सुनेगा!! जागो सोने वालो!!!
Samvedna ke swar bandhuo. Aapka yah alekh padhakar aisa lagaa kisi ne tamacha mar diya hai… aisa lag raha hai ki is poore process ke andar ek common aadmi bali ka bakra banaa rahta hai aur apne liye kasaai chunta hai…
जानकारीपूर्ण अच्छी प्रस्तुति।
डेमोक्रेसी किडनैप? इधर तो देश का प्रधानमंत्री ही किडनैप हो गया जी.
12 करोड़ मत पाने वाली कांगेस की नौकरी करने वाले प्रधानमंत्री को मात्र 77 लाख मत पाने वाली डीएमके ने किस तरह बन्धक बना रखा था यह तो आजकल हम सब देख ही रहें हैं।
110 करोड़ में 1 को पटा लीजिये और बन जाईये किंग मेकर।
पता नहीं क्यों, लेकिन आपके लेख में पीले बैकग्राउंड वाले शब्दों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है, जबकि बाकी सभी ब्लॉग ठीक दिखाई दे रहे हैं.
प्रेमरस.कॉम
और तो और देश का प्रधानमंत्री ही बिना जनता के वोट के दो-दो पारिया खेल रहा हो तो डेमोक्रेसी तो किडनेप हो ही गई समझिये !
आखे खो( ल) देने वाले तथ्य
बाप रे बाप क्या घोटाला (ले )हैं .
@ संवेदना के स्वर बंधुओ ,
ये आंकड़े वो हैं जो घट चुका है , इनके आगे कोई परदेदारी शेष रह नहीं जाती ! एक यथार्थ ये भी कि कुल पड़ चुके वोटों में , फेक / बाहुबल आधारित वोटों का आंकडा भी शामिल है ! अगर कोई सूरत ऐसी हो कि फर्जी / फेक / बाहुबलीय वोटों का आंकडा कुल पड़े वोटों में से अलग किया जा सके तो फिर जनता द्वारा मूलतः डाले गए वोटों के आंकड़े कितने भयावह होंगे ?
विषय पर अगला अंक अभी आना बाकी है फिर भी शुक्रिया कि आपने एक वस्तुपरक / तथ्यगत और बेहद शानदार रिपोर्ट पेश की है
मैंने ये सब कुछ बहुत नज़दीक से देखा और झेला है. यहाँ दूसरों से तो सही अपनों के बीच अपने ही घर में भी यही राजनीति होती है
ग़ज़ब के आंकड़े ग़ज़ब के विश्लेषण। अभिभूत हूं।
आँखें खोलनी वाली जानकारी .. वोटों का सच .... आंकड़ों का खेल जो हमारी राजनितिक पार्टियाँ बहूबी जानती हैं ....
Excellent blog post, I have been reading into this a bit recently. Good to hear some more info on this. Keep up the good work!
Post a Comment