सम्वेदना के स्वर

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सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Wednesday, November 24, 2010

मियाँ लिक्खाड़, टाइम टेस्टेड मसाले और कौमी एकता

मियाँ लिक्खाड़ के हाथ में कलम आते ही न जाने कहाँ से शेख़पीर की आत्मा सवार हो जाती है दिलो दिमाग़ पर और एक सन्निपात की सी हालत हो जाती है उस वक़्त. और जब यह दौरा उतरता है तो बस सामने काग़ज़ होता है, होती हैं उसपर लिखी कुछ इबारतें और रोता हुआ शेख़पीर कि कमबख़्त उसकी दुकान बंद करवा गया. लेकिन शेख़पीर तो चुप हो जाता है रोधोकर, परेशान हो जाता है वो बेचारा. ये ईबारतें,जो कल को एक साहित्यिक धरोहर होने वाली हैं, प्रकाशक यह कहकर वापिस कर देते हैं कि जनाब ये इतने आला दर्ज़े का शाहकार है कि जब तक हमारा प्रकाशन उस मेयार को हासिल न कर ले, हम इसकी हिफ़ाज़त नहीं कर पाएँगे.

कम्बख़्त मारे प्रेमचंद के रीप्रिंट पर कोई ऐतराज़ नहीं है और इस बेहतरीन अफसाने को शाया करने से गुरेज. ख़ैर यू नॉट ऐण्ड करेक्ट,ऐण्ड नॉट ऐण्ड करेक्ट... तू नहीं और सही, और नहीं और सही (तर्जुमा). लेकिन महीनों की मशक्कत के बाद पता लगा कि शेख़पीर के साथ कम्पीटिशन में इतना बेहतर अफसाना लिख डाला है कि कोई भी इसे छापने से डर रहा है.

फिर एक रोज़ मियाँ लिक्खाड़ के हाथ लग गया एक लैप टॉप. और जैसे किसी आदमख़ोर के मुँह से ख़ून लग जाता है, उँगलियों को की बोर्ड लग गया और लैपटॉप के स्लॉट को ब्रॉडबैंड और छाप डाला उन्होने अपना पहलौठी का अफसाना. और इस तरह एक नई दुनिया को मिला एक नया शेख़पीर. मगर परमात्मा का मज़ाक. पता कैसे चले कि जचगी के बाद जो बच्चे की नुमाइश लगाई है, उसमें किसी ने बच्चे को निहारा कि नहीं, किसी ने कहा कि नहीं कि बच्चा तो चाँद सा सुंदर है, लला की बलाएँ ले लो, कोई हंगामा कि सज रही गली मेरी अम्मा. अरे परमात्मा किस जनम का बैर निकाल रहा है, हुनर दिया है तो हुनरमंद तो भेज, जो इस हुनर की तारीफ करे.

परमात्मा ने कहा तथास्तु. बच्चे को कौन बुरा कहता है. अच्छा ही होगा सोचकर लोग बाग बिना देखकर समय बरबाद किए, कह गए कि बहुत सुंदर, अद्भुत, बिल्कुल रामलला की छवि. और मोगैम्बो ख़ुश हुआ. लेकिन पता नहीं कहाँ से एक सिरफिरा आ गया और उसने बच्चे को सरापा देखने का हौसला जुटाया और ताड़ गया कि बच्चे ने तो शुश्शू की है. वो कह गया कि बच्चे की नैपी बदल दें, वो कब से गीले में है. इतना सुनना था कि मोगैम्बो आग बबूला. अंधे कहीं के, इतने लोगों में सिर्फ तुझे ही दिख रहा है कि बच्चे ने गीला कर रखा है, तेरे बच्चे नहीं हैं क्या, तुझे समझ क्या है बच्चे पालने की, कितने जायज बच्चे हैं तेरे. बेचारा अपनी पैण्ट गीली करवाकर ही टला.

एक गरम चाय की प्याली हो (अब सबकी सोच की एक सीमा होती है) और मसाले दार लेपचू की चाय हो तो अदीब बनते कितनी देर लगती है. ख़यालात का क्या है, आते ही रहते हैं. प्रेमचंद ख़्वामख्वाह खेतों की मेंड़ पर बैठकर अफसानानिगारी करते थे. अफसानों में माटी से लेकर मसाले तक की ख़ुशबू खेतों में बैठने से थोड़े ही आती है, वो आती है ए.सी. ड्राईंग रूम में बैठकर ख़यालों के मसालों से भुने अफसाने को बिरयानी से. कुछ आम मसाले तो आए दिन किचन गार्डेन में उगाए जा सकते हैं. मसलन क़ौमी एकता का मसाला तो हर मौसम में उगाया जा सकता है. इसके अलावा भाईचारा, नफरत, दया, सहानुभूति वगैरह मसालों से सजाकर एक अच्छी लज़ीज़ बिरयानी तैयार की जा सकती है.

और ये मसाले तो टाइम टेस्टेड मसाले हैं. इनसे बनी बिरयानी की ख़ुशबू ही काफी है. कोई खाए न खाए, तारीफ से बाज नहीं आएगा. और ग्राहकों की तारीफें सलामत तो दुकान चलने से कौन रोक सकता है. कौन सा अमित जी वही क्रीम इस्तेमाल करते हैं जिसकी दुहाई दिन भर देते रहते हैं, या फिर सैफ़ वही पेण्ट इस्तेमाल करते हैं, जो वो बताते हैं कि बेहतरीन है.

ग़ौरतलब है कि यहाँ मिसाल देने के नाम पर भी क़ौमी एकता को ध्यान में रखते हुए भाईचारा और सौहार्द मेंटेन रखते हुए, अमित जी और सैफ़ दोनों को बराबर दर्ज़ा दिया गया है. यही नहीं सर्दियों में मलमल का कुर्ता पहने, भाई चारे की गर्मी बनाए रखने के लिए हिंदी और उर्दू दोनों के लफ्ज़ों का बराबर वज़न बनाए रखने की कोशिश काबिले गौर है. और आख़िर में ई एण्ड ओ ई.. यानि गुंजायश है कि गिनती में ग़लतियाँ हो सकती हैं (लफ्ज़ हैं कोई टिप्पणी नहीं कि सही गिनती बता दें)… कहीं कोई इंच टेप लेकर गिनने और नापने बैठ जाए कि कितने लफ्ज़ हिंदी के और कितने शब्दब उर्दू के हैं और कमी बेशी होते ही पिल पड़े और साम्प्रदायिक न डिक्लेयर कर दे.

एक सबसे अहम बात तो रह ही गई. यह पोस्ट महज़ एक मज़ाहिया शाहकार है . इसमें ज़रा भी तंज़ नहीं. किसी भी ज़िंदा शख्स को लगता है कि ये उसकी ज़ाती ज़िंदगी से मुतासिर होकर लिखी गई है तो इसे महज़ इत्तेफाक़ समझा जाए और माफी का हलफनामा दाख़िल माना जाए. और अगर किसी मुर्दे को लगे तो उसकी किसे परवाह है. 120 करोड़ मुर्दों के मुल्क़ में एक मुर्दा क्या उखाड़ लेगा.

21 comments:

दीपक बाबा said...

बिरयानी मजेदार,
अरे अरे नहीं हैं क्या कहते हैं लज़ीज़ बनी है......

पर ऐसे यक्ष प्रशन मत छोड़ कर जाया कीजिए......
"120 करोड़ मुर्दों के मुल्क़ में एक मुर्दा किसी का क्या उखाड़ लेगा"

सुज्ञ said...

चैतन्य जी,

आज साकार हो उठे सम्वेदना के स्वर……।

1-…एक संतुलित पोस्ट।
2-…मौगेम्बो के प्रति यह सद्भावना है।
3-…कौमी एकता के मसाले को समर्पित।
4-…उर्दु को आपने समान दर्जा देकर, सम्मान बढाया है। अभिनंदन

प्रवीण पाण्डेय said...

गज़ब की पोस्ट, उखाड़िया पोस्ट और बड़ी सामयिक पोस्ट।

shikha varshney said...

वाह वाह अमित और सैफ को एक साथ खड़ा करके आपने एकता की जो मिसाल दी है कबीले तारीफ है ,
और बिरयानी का तो कहना ही क्या माशाल्लाह ..
उर्दू और हिंदी के प्रति आपकी भावना भी देखते ही बनती है.
कुल मिलाकर लिक्खाड़ एवईं नहीं है और हमें वाह वाह और माशाल्लाह भी बराबर का कहा है.:) .

सुज्ञ said...

चैतन्य जी,
आप और सलिल भाई में गजब का सामन्जस्य है। शुभकामनाएं!
साझा ब्लोग होने की जानकारी तो थी ही,पर निकटता प्रेषित करने के लिये हमने "सम्वेदना…" से आपको और "चला बिहारी…" से सलिल जी को सम्बोधित ठीक समझा। मेरा इरादा आपको असमंजस की स्थिति में डालना न था।
लेकिन अब आपने मुझे दुविधा में अवश्य डाल दिया है, अब मैं कैसे सम्बोधित करूं, सीधे नाम से निकटता महसुस होती है। आप ही सुझाएं।
(संदेश पहूँचने के बाद आप चाहें तो यह टिप्पणी डिलिट कर सकते हैं)

kshama said...

Ham to bina tippanee diye,muskurake chal diye!

सम्वेदना के स्वर said...

@सुज्ञः
सुज्ञ जी! आपने हमारी बात को सहज रूप से ग्रहण किया इसका आभार... नाम का अम्बोधन यदि आपको यदि निकटता की अनुभूति प्रदान करता है तो आप हम दोनों को सम्बोधित कर कह सकते हैं.

सुशील गर्ग said...

भाई साहब! यह सारी टर्मिनोलॉजी मेरे लिए नई है.. इसलिए मुझे समझ नहीं आया... पर भाषा में अच्छा सामंजस्य दिखाई दे रहा है!!

संजय @ मो सम कौन... said...

शेखपीर तो रो धोकर चुपकर गया था, हम चुप नहीं बैठेंगे। सामने बैठकर रोयेंगे और बतायेंगे भी नहीं तब कि क्यों रो रहे हैं। सेंध लगा दी है आपने औरों की दुकानदारी में। गरीब की आह में असर बहुत होता है जी:)
सुबह कुछ गड़बड़ हो गई थी, ब्लॉगर मियाँ, सॉरी ब्लॉगर महोदय नाराज हो गये थे। अब ये पोस्ट देखकर हिम्मत टूट गई है, लेकिन अपन बेशर्म हैं जी, अभी डालते हैं अपनी पोस्ट भी।
आज की आपकी पोस्ट सुपर डुपर मस्त है, सच में।

समय चक्र said...

बहुत उम्दा..ख्यालों के पुलाव तो कभी भी बनाये सकते हैं ...आभार

Satish Saxena said...

आज मसाला कुछ तेज है :-))

उम्मतें said...

संवेदना के स्वर बंधुओ ,
इस टिप्पणी की शुरुआत पोस्ट के आखीर से करना ज़रुरी लग रहा है ! मज़ाहिया शाहकार कहके भी आपने शेखपीर उर्फ लिक्खाड़ की अच्छी खासी धुलाई कर डाली है ! बस इतना समझने में तकलीफ हो रही है कि बन्दा है कौन ? :)

इसमें कोई शक नहीं कि लैपटाप और ब्राडबैंड के डेडली काम्बीनेशन ने मियाँ लिक्खाड़ की आला दर्जे की साहित्यिक कृति को आला दर्जे का प्रकाशन संस्थान मयस्सर करा दिया है :)

अब जब मियाँ जी किसी गैर के प्रकाशन संस्थान के मोहताज़ नहीं तो कौमी एकता के अलावा दीगर टाइम टेस्टेड मसाले भी विकसित करने से कौन रोक पायेगा उन्हें ?

खैर आपने जिस बंदे पर निशाना साध कर ये पोस्ट लिखी हो अपनी टिप्पणी भी उसी पर सधी हुई मानी जाये :)

वन्दना अवस्थी दुबे said...

खूब उधेड़ा है आपने इन तथाकथित लिख्कड़ को.

Girish Kumar Billore said...

गज़ब की पोस्ट
शुक्रिया कहना मुश्किल
फ़िर भी
शुक्रिया@नाइस_पोस्ट.ब्लोग

स्वप्निल तिवारी said...

salil sir..chaitnya sir

standing ovation meri or se ...

disclaimer kee akhiri line men ...rahi masoom raja ka andaaz nazar aa raha hai ..ek dum sloid ..jaise topi shukla men wo kahte hain "yah upanyaas gaali hai" heheh.... aur miyaan likkhaad ...ab kya kahun... salil sir se yah miyaan likkhad ki kahani suni thi jab mila tha to.... :)
text men padh kar maza aayaa...hehehe

राजेश उत्‍साही said...

यह अच्‍छा है। आंख बंद करके धूल में लट्ठ घुमाते रहो किसी न किसी का तो सिर फूटेगा ही। क्‍योंकि कौमी एकता का रथ लेकर बहुत से ब्‍लागर जब तब निकल पड़ते हैं। लगता है जैसे दुनिया में और कोई बात ही नहीं बची है करने के लिए।
*
120 करोड़ मुर्दों में आपकी गिनती भी होती है जनाब।
तो आपकी बात आपके ही सिर। आप इकल्‍ले क्‍या उखाड़ लोगे यह पोस्‍ट लगाकर।
*
पर एक बात तो है यह नया सलीका चला है। पहले लिख मारो, अत: में धीरे से एक पुछल्‍ला चिपका दो भैय्या यह व्‍यंग्‍य है।
*
हम भी कहे जाते हैं अगर कोई हमारी टिप्‍पणी को लेकर गंभीर हो रहा हो तो यह व्‍यंग्‍य है।

राजेश उत्‍साही said...
This comment has been removed by the author.
अरुण चन्द्र रॉय said...

इस पोस्ट की आत्मा कहीं और ही है.. जितनी बार पढ़ा अलग अलग बातें जेहन में आयी... पद्य में इतने परोक्ष रूप से लिखा जा सकता है देख कर सीखने की बात है.... अवसरवादी लेखन के चलते प्रचलन पर प्रहार करता आलेख बहुत सहज और रोचक रूप से लिखा गया है...

Deepak Saini said...

आज पहली बार आया हूँ आपके द्वार पर
पोस्ट पढ पर मजा आ गया (ए0सी0 हो गया हूं आपका)
शेखपीर तो जैसे मेरी ही कहानी है
और आपका स्टाईल तो कहने क्या
वाह क्या बढिया बिरयानी बनायी है

soni garg goyal said...

वाह मस्त उधेडा है !!!! ज़ोरदार व्यंग है नहीं कटाक्ष है नहीं बिरयानी है क्या कहू शब्द नहीं है लेकिन ये क्लास ली किसकी है ?? दरसल अब रेगुलर नहीं हूँ इसलिए मर्म समझ नहीं पायी लेकिन जितना समझा उतना मस्त लगा !!!! और आपकी आज वाली पोस्ट भी एक दो दिन में पढ़ती हूँ अब थोड़ी लेटलतीफ हो गयी हूँ !

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बाप रे...इतनी जल्दी-जल्दी इतना अच्छा लिखना! कमाल है..! आप तो लिक्खाड़ हो।

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