स्मरण होता है कि अपने कार्यकाल में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एम. एस. गिल ने सुझाव दिया था कि “जनप्रतिनिधि कानून” में यदि निम्नलिखित दो संशोधन किये जायें, तो लोकतंत्र को बेहतर बनाने में एक प्रभावी कदम होगा :
1. प्रत्येक क्षेत्र में दो चरण में चुनाव : चुनावों को दो चरणों में किया जाये, प्रथम चरण में चुनाव उसी तरह हों जैसे अभी हो रहें हैं. दूसरे चरण के चुनाव, प्रथम चरण में पहले और दूसरे नम्बर पर आये प्रत्त्याशिओं के बीच कराये जायें. इनमें जो 51% वोट हासिल करें उसे ही विजयी घोषित किया जाये. यह स्थिति पहले कि 21% वोट से बेहतर होगी क्योकिं 51% वोट के लिये नेता को और अधिक सर्वमान्य होना होगा. हां यदि उपरोक्त में से कोई नहीं को 51% वोट मिलते हैं तब उस सीट को खाली ही रखा जाये तथा 6 महीने बाद फिर चुनाव हों जिसमे पिछले चरण के सभी प्रत्त्याशी अयोग्य हों
2. लोकसभा में "अविश्वास प्रस्ताव" के बजाय "विश्वास प्रस्ताव" का प्रावधान :
1977 में जनता पार्टी की 2 साल की सरकार , 1989 में देवगौडा की सरकार, पहले 13 दिन और फिर 13 महीनें की बाजपेयी की सरकार ने देश पर असमय चुनाव थोप दिये थे. ऐसा होने का एक कारण है अविश्वाश प्रस्ताव जिसके कारण बिना किसी विकल्प के पहले तो सरकार गिरा दी जाती है और फिर किसी नाम पर सहमति न होने पर दुबारा चुनाव का सबब बनती है.
इसके विपरीत यदि विश्वास प्रस्ताव लाया जाए, तो इस तरह की स्थिति से निबटा जा सकता है. संसद का कार्यकाल 5 साल रहेगा इस बीच कभी भी किसी के पक्ष में विश्वास प्रस्ताव लाकर उसे सरकार बनाने के लिये आगे लाया जा सकता है. इस तरह बिना विकल्प के कभी भी सरकार नहीं गिर सकती.
इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि इन सुझावों को देने वाले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री एम एस गिल, ने रिटायरमेण्ट के बाद कांग्रेस पार्टी से राज्य सभा के टिकट का जुगाड कर मंत्री पद हासिल कर लिया. फिर सिद्ध हुआ कि सत्ता की मलाई के आगे देश की भलाई और चुनाव सुधार जैसी चीज़े टुच्ची बातें हैं.
भारत और इंडिया के जिस अघोषित युद्द की बात हम करते हैं उसका एक पहलू यह भी है कि देश की संसद पर इंडिया का परोक्ष और अपरोक्ष कब्जा है. संसद में अधिंकांश सदस्य करोड़पति और अरबपति हैं. इन्होनें लोकतंत्र को हाईजैक कर लिया है भारत जाये तो कहां जाये.
वैकल्पिक व्य्वस्था:
इस गोरखधन्धे को कौन समझेगा कि आज जब अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, आस्ट्रेलिया जैसे देश भी पेपर बैलट का इस्तेमाल करते हैं, तब बीस रुपये रोज़ पर ज़िन्दा 77% आबादी को ईवीएम नाम का हाई-फाई खिलौना देने की क्या मजबूरी हैं.
बहरहाल, यह किस पंडित ने बताया है कि चुनाव एक दिन में ही करवानें हैं? इसके बदले इण्टरनेट का इस्तेमाल करते हुए, क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था स्थापित की जाती, जिसमें वोट डालने की लाइनें महीने भर खुली रहें, कुछ इस प्रकार:
1. चुनाव प्रक्रिया लगभग महीनें भर के लिये खुली रहे तथा इसके लिये प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में निश्चित जगह पर चुनाव आयोग द्वारा अनुमोदित साइबर कैफे स्थापित किए जाएँ, जहाँ जा कर कोई भी अपनी वोट डाल सके.
2. वोटो का संग्रहण ईवीएम में भी हो और चुनाव आयोग के सेंट्रल सर्वर में भी रहे. इससे यह लाभ होगा कि किसी विवाद की स्थिति में वोटों को क्रॉस एक्ज़ामिन किया जा सकता है. चुनाव परिणाम भी सीधे दिल्ली स्थित मुख्य चुनाव आयोग कार्यलय से घोषित हो सकें और पूरे देश मे पागलपन भी न रहे.
3. विशिष्ट पहचान पत्र को दिखाकर, कोई भी किसी भी नज़दीकी चुनाव आयोग के साइबर कैफे में जाकर, अपने क्षेत्र के लिये वोट डाल सकेगा, और अपने चुनाव क्षेत्र में जाकर ही वोट डालने की बाध्यता से मुक्त हो सकेगा.
4. चुनाव परिणामों के बाद भी प्रत्येक मतदाता को यह सुविधा होनी चाहिये कि वो इण्टरनेट पर अपनी मतदाता पहचान संख्या पंच कर, यह जाँच सके कि उसका वोट उसी प्रत्याशी को गया है जिसे उसने वोट दिया था.
5. दूरदराज़ के इलाकों में मोबाइल साइबर कैफे ले जाकर यह सुविधा उप्लब्ध करायी जा सकती है. वी-सैट और थ्री जी टैक्नोलोजी से सुसज्जित भारत के लिये यह मुश्किल कार्य नहीं होना चाहिये. पूरी कोशिश इसी बात की हो कि लगभग सभी मतदाता के सामने वोट डालने की सुविधा दी जाये. तभी लोकतंत्र का मतलब है.
लाभ :
1. महंगी चुनावी सुरक्षा व्यव्स्था से पूरी तरह निजात मिल जायेगी.
2. ईवीएम के घपले की सम्भावना में कमी.
3. मतदान के प्रतिशत में अप्रत्याशित उछाल
आमतौर पर कमजोर मतदाता को दबंग दबा कर रखते हैं और उन्हें चुनाव में या तो भाग ही नहीं लेने दिया जाता या अपनी निगरानी में वोट डलवाया जाता है. जब चुनाव पूरे माह चलेंगे और वोटर को देश के किसी भी हिस्से में जाकर वोट डालने का हक होगा तो किसी मतदाता को बरगलाया नहीं जा सकता.
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32 comments:
कल परसों ही कही पढ़ा था कि ८५% सीट पर कब्ज़ा करने वाले एन ड़ी ए को बिहार में केवल ३९% मत मिले हैं... वास्तव में यह सत्ता में साझेदारी है राजनितिक पार्टियों द्वारा... जनता कहीं नहीं है.. विचारनीय सुझव आये हैं आपके आलेख में लेकिन निर्णय कर्ताओं तक कहाँ पहुच्पाती हैं ये बातें..
बड़े अच्छे सुझाव है इनका विश्लेषण कराने हेतु चुनाव आयोग भेजिए ! शायद कुछ बात बने ! शुभकामनायें !
aapke baaton me dumm hai...lekin iss desh ka do kamjor pahlu ye hai ki hamahre yahan niraksharo ki sankhya bahut hai aur saath hi ham aarthik roop se bahut capable nahi hain...!!
Waikalpik wyawastha to behad achhee sujhayi hai!
सर्व प्रथम तो बधाई 100 वी पोस्ट के लिये!!
चुनाव सम्बंधी प्रस्ताव वाकई काबिले-गौर है।
गहन विश्लेषण!!
बढ़िया विश्लेषण !
आपके सुझाव विचारणीय हैं .... सौवीं पोस्ट पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ...
चुनाव प्रणाली में सुधारों के संदर्भ में महत्वपूर्ण पोस्ट !
पिछली कई पोस्टों में आप लोकतंत्र का विश्लेषण कर रहे हो....... बढिया लग रहे ... पसंद भी आ रहे हैं.......
chunaav prnaali men to bhut bhut sudhar ki zrurt he yhaan 12 mhine desh men chunav ke kaam hote hen fir bhi laakhon logon ke nam votr list men nhin hote lakhon logon ki votr list men gdbdiya hoti hen partiyon ko khud votr ko jaagruk krne vot ke vqt vot sthl btaane or prchiyaan baantne kaa kaam krna pdhta he or bs chuaav aayog mthadhish bn kr arbor khrbon khrch kr mze krta he hr chunaavi khrch ki smiksha hona chaahiye. akhtar khan akela kota rasjthan
सैंकड़े की बधाई।
इस पद्धति में खामियां हैं, हमें और भी ज्यादा लगती हैं क्योंकि चुनाव में ड्यूटी भी लगती है और वो दिक्कतें हर कोई शायद महसूस न कर सके।
लेकिन, इंटरनेट वाला सुझाव मुझे प्रीमैच्योर बेबी की तरह लगता है। पंक्चुऐलिटी मेनटेन करने के लिये जो पंचिंग कार्ड बनते हैं, हम लोग उसे भी अपने हिसाब से मैनेज कर लेते हैं तो ये वोट देने के लिये विशिष्ट कोड क्या चीज है, जब दांव पर सत्ता लगी हो?
प्रयोग के तौर पर कुछ जगह से शुरुआत की जा सकती है, लेकिन जब तक दूध की गुणवत्ता अच्छी नहीं होगी, अच्छी दही के सपने भी शायद बेमानी हैं। मेरी बात कड़वी लग सकती है, लेकिन एकाध उदाहरण से अगर हम सोचें कि जनता बहुत परिपक्व हो गई है, तो ये ठीक नहीं होगा।
सौंवी पोस्ट की बधाई। काफ़ी शोध कर तैयार किया गया आलेख इस बात की गवाही है कि आप लोग ने बहुत ही उम्दा रचनाएं पेश की हैं, इस ब्लॉग पर। “जनप्रतिनिधि कानून” में यदि आपके बताए दो संशोधन किये जायें, तो होगा यह एक प्रभावी कदम और बेहतर होगा लोकतंत्र।
सौवीं पोस्ट पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ...
आपके सुझाव तो बहुत अच्छे हैं पर मुश्किल ये है की अगर आपके सुझाव मान लिए जाय तो मलाई खाने वालों का क्या होगा???????
इंटरनेट के माध्यम से वोट डालने का सुझाव आकर्षक है पर इसके लिए सभी मतदाताओं को कम्प्यूटर साक्षर होना होगा ,वर्ना साइबर माफिया लोकतंत्र का नया बाहुबली / लठैत साबित होगा !
मेरे ख्याल से लोकतान्त्रिक प्रणाली में सबसे पहला सुधार अच्छे / निरापद और बेदाग़ अभ्यर्थियों के चयन को लेकर हो , अभ्यर्थियों के चयन में जातीय समीकरण की शून्यता बाध्यताकारी हो फिर वोटिंग सिस्टम और सरकारें सुधार के लिए लक्षित हों पर...
इन सबसे पहले जनगण में 'नागरिक / राजनैतिक समझ' विकसित किये जाने की ज़रूरत है वर्ना निज पहचान आधारित अभ्यर्थी का चयन सतत बना रहेगा और विचारधारा आधारित राजनीति और राजनीतिक दल हाशिए पर बने रहेंगे !
लोकतंत्र में भागीदार दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव भी सुधार प्रक्रिया का लक्ष्य होना चाहिए !
इसके आगे और भी बहुत कुछ ...पर शुरुआत तो हो !
हमारे पिछले दो आलेखों “लोकतंत्र की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट” और “डेमोक्रेसी किड्नैप्ड” मं हमनें वर्तमान चुनाव व्यव्स्था की खामियों का विश्लेष्ण किया था।
प्रस्तुत आलेख में, सूचना तकनीकी में हुई प्रगति की सहायता लेकर, भावी सुधारों की दिशा की बात की गयी है। आलेख में दिये विचार चिंतन प्रक्रिया को शुरूआती ईधन देनें की तरह हैं उन्हें अंतिम सुझाव या समाधान न समझा जाये।
लोकतंत्र एक गत्यात्मक प्रक्रिया है जिसे पिछले 60 वर्षों में उतरोत्तर बेहतर होना था, परंतु निहित स्वार्थों के चलते और उचित सुधारों के अभाव में आज लोकतंत्र के सभी खंभे जीर्ण-शीर्ण अवस्था में अब गिरे तब गिरे जैसी हालत मे दिख रहें हैं।
विधायिका : पिछले 11 दिनों से बन्द संसद क्या प्रमाण नहीं है कि इस लोकतांत्रिक व्यव्स्था के पास करोड़ो रुपये का घोटाला करने वालों से लूट का माल वापस लेना तो दूर, उनसे प्रश्न पूछनें तक का रास्ता नहीं है।
कार्यपालिका : इसका हाल यह है कि ग्रह मन्त्रालय की आंतरिक सुरक्षा का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी (जी, हाँ श्री रवि इन्दर सिहं, IAS) सूचना बेचने के आरोप में निलम्बित है।
न्यायपालिका : प्रशांत भूषण का हलफनामा कि सर्वोच्च न्यायलय के न्यायधीश भी दूध के धुले नहीं हैं हैरान करता है। और उस पर मुहर लगाता है हाल में स्वम सर्वोच्च न्यायलय का यह कहना कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में गड़्बड़ है।
मीडिया : नीरा राडिया के टेप जग-जाहिर होने के बाद, अब इन लोकतंत्र के प्रहरीयों पर भी रहा-सहा विश्वास उठ गया है?
भारतीय लोकतंत्र का इस गर्त में पहुचने का एक मात्र कारण यही लगता है कि हमने समय रहते अपनी चुनाव व्यव्स्था को चुस्त दुरूस्त नहीं किया और पूरे लोकतंत्र का अपहरण हो जाने दिया।
@अरुण चन्द्र राय जी
@सतीश सक्सेना जी
जब तक मतदान का प्रतिशत कम से कम 90% तक नहीं होगा हमें लोकतंत्र कहलाने के दम्भ से बचना चाहिये।
आपसे अनुरोध है कि इस चर्चा को यदि आप अनेकानेक मंचों से जारी रखेंगें तो जन चेतना फैलगी। बात आगे बडेगी।
@ मुकेश कुमार सिन्हा
निरक्षरता और आर्थिक बदहाली की आपकी बात तो दीवार पर लिखी इबारत की तरह एकदम स्पष्ट है, परंतु एक सच यह भी है कि यही व्यव्सथा जब ईवीएम से वोट डलवा रही है तो उसी ईवीएम से ही 100% नहीं तो 90% वोट क्यो नहीं डलवा सकती?
गिरेजेश राव जी ने अपने आलेखों में लिखा है कि मतदाता ईवीएम तक पहुचे यह क्या किसी महान ग्रंथ में लिखा है? ईवीएम मतदाता तक क्यों न पहुचे? फिर जैसा ZEAL, दिव्या जी नें कहा है कि भारत से बाहर रहने वाले भारतीयों को भी वोट डालने की व्यव्स्था हो तो ईवीएम उन तक भी क्यों न पहुचें?
आर्थिक कमी की जहाँ तक बात है तो हमें शायद ज्ञात हो कि पहचान पत्र जारी करने के लिये UID प्रोजेक्ट के तहत एक पूरा मंत्रालय बनाया गया है, इस प्रोजेक्ट के लिये इस वर्ष के बजट में 1900 करोड़ का प्रवाधान था और इस मंत्रालय के सर्वेसर्वा नन्दन नीलेकर्णी के अनुसार यह पंचवर्षीय योजना है, जो 2000 करोड़ का प्रतिवर्ष रसपान करेगी।
20 रुपये रोज़ पर जिन्दा 77% जनता को यह 200रुपये प्रति कार्ड की लागत का तोहफा दिया जायेगा। अब इससे महगां और क्या होगा? 70,000 करोड़ का कामनवैल्थ खेल देखा है हमने और 1 लाख 76हज़ार करोड़ रुपये का स्पेक्ट्रम घोटाला तो अभी सबके सामनें है?
@kshama ji
@सुज्ञ जी
@ZEAL ji
@महेन्द्र मिश्र जी
@Arvind mishra ji
@ Deepak Dudeja ji
@ Aktara khan Akela ji
आपसे अनुरोध है कि इस चर्चा को यदि आप अनेकानेक मंचों से जारी रखेंगें तो जन चेतना फैलगी। बात आगे बडेगी।
जब सरकार गाँव गाँव में इन्टरनेट पहुंचाने का दावा कर सकती है, तो इन्टरनेट आने वाले दिनों में इस निरक्षर राष्ट्र के लिए कोई मरीचिका नहीं होने वाला. यहाँ पर प्रस्तुत वैकल्पिक व्यवस्था के लिए कुछ सुझाव प्री मैच्योर बेबी नहीं महज टिप ऑफ द आइसबर्ग है.
लोग चर्चा करें और आचार संहिता के नाम पर सच कहने से न बचें बस ये सार्थकता होगी इस पोस्ट की.
शतकीय पोस्ट की बधाई.
@ मो सम कौन?
भाई,स्वस्थ चर्चा में बात बुरी-भली कहाँ लगती है? बात आगे चले, बात से बात बनें बस यही इस ब्लोग और इस विषय पर लिखने का उद्देश्य है।
आपकी बात दुरुस्त है कि शुरूआत होनी चाहिये, जब ईवीएम आई थी तो सभी जगह एक साथ थोड़े न आयी थी, उसी तरह यह प्रयोग भी अमीर इंडिया से ही शुरू किया जाये कम से कम ब्लोग, इंटरनैट,ई-मेल और ऎटीएम का प्रयोग करने वाली जनता को ही शत प्रतिशत वोट के लिये सुविधायें दी जायें।
कोफ्त तो तब होती है,भाई! जब इस बाबत बात तक नहीं होती? इस लोकतंत्र में जब, सब की भागीदारी होगी तभी यह लूट-तंत्र रुकेगा!
@मनोज कुमार जी
ये दो संशोधन पूर्व चुनाव आयुक्त एम.एस. गिल नें दिये थे, जो सेवा निवृत्ति के तुरंत बाद कांगेस के टिक़ट पर राज्य सभा के पिछले दरवाजे से सत्ता की मलाई खाने पहुच गये, और ये बाते महज किताबी बन कर रह गयीं। जबकि गिल साहब इन सुधारों को अपने रसूख के चलते लागू करवा सकते थे।
अभी हाल ही में इन्होने बहुत "सफल मलाईदार कामनवैल्थ खेल" करवायें हैं। देश के विश्व विजेता बैडमिंटन खिलाड़ी से यह अब पूछते हैं तुम कौन हो, और आखिरी बार मैने इन्हे विश्व विजेता पहलवान सुशील कुमार के कोच को धकियाकर अपमानित करते हुये देखा था। फोटों
@रचना दीक्षित जी
आपका आंकलन भी सही है।
पर लूट-तंत्र को रोकना है तो चुनाव प्रक्रिया पर सवाल खड़े करने ही होंगे।
@ अली सा
व्यव्स्था पर आपकी बेबाक नज़र के हम कायल हैं, और आप की आखिरी बात तो हमारी भी आखिरी बात है, कि जो कहा गया वो कम है :
इसके आगे और भी बहुत कुछ ...पर शुरुआत तो हो !
चुनाव घटना के रूप में न लेकर प्रक्रिया के रूप में ली जाये। सुन्दर सुझाव।
एक सार्थक चिंतनीय पोस्ट ! इन विचारों को जन-जन तक पहुँचना बहुत जरूरी है । आम भारतवासी तक इनकी गूँज अनुगूँज गुँजनी चाहिए । तभी जाकर सुधार संभव हो सकेंगे ।
पोस्टों का शतक पूरा करने पर हार्दिक शुभकामनाएँ । आगे भी इसी प्रकार की जागरूक करने वाली पोस्टों का इंतजार रहेगा ।
100 वीं पोस्ट की बधाई ...बहुत अच्छा विश्लेषण किया है ..लेकिन क्या दुबारा मतदान जनता की जेब पर भारी नहीं होगा ?
सबसे पहले तो सेन्चुरी के लिए शुभकामनाये,
आपने चुनाव प्रणाली मे सुधार करने की कोशिश की है वो काबिले तारिफ है
परन्तु मै समझता हूँ ये पद्धती यहाँ इतनी जल्दी लागू नही हो पायेगी
क्यो कि अभी भारत मे इन्टरनेट पूरी तरह से नही फैल पाया है हाँ जागरूकता जरूर आयी है। और दुसरी बात यहाँ जो लंका मे सारे बावन
गज के (नेता) है वो कहाँ ऐसी किसी चीज को आने देंगे जो उनके लिए दिकक्त खडी कर दे।
आपका विश्लेषण तो गज़ब का है .... सिस्टम में बदलाव आना जरूरी है अब ....
आपको सोवीं पोस्ट की बहुत बहुत बधाई ....
सौंवी पोस्ट के लिए बधाई !
लोकतंत्र वहीँ सफल हो सकता है जहाँ की जनता जागरूक हो और अपना भलाई समझे ...
ये हर कोई जानता है कि भारत की जानता बिलकुल जागरूक नहीं है ...
पहले के ज़माने में जो राजतंत्र चलता था आज भी वही कायम है ... नाम बदल गया है ... बस!
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