सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Tuesday, March 8, 2011

नारी

(photo coursey : Gender Jehad)

वो मेरी तुमसे पहली पहचान थी
जब मैं जन्मा भी न था
मैं गर्भ में था तुम्हारे
और तुम सहेजे थीं मुझे.

फिर मृत्यु सी पीड़ा सहकर भी
जन्म दिया तुमने मुझे
सासें दीं, दूध दिया, रक्त दिया तुमने मुझे.

और जैसे तुम्हारे नेह की पतवार
लहर लहर ले आयी जीवन में

तुम्हारी उंगली को छूकर
तुमसे भी ऊँचा होकर
एक दिन अचानक
तुमसे अलग हो गया मैं.

और जिस तरह नदी पार हो जाने पर
नाव साथ नहीं चलती
मुझे भी तुम्हारा साथ अच्छा नहीं लगता था
तुम्हारे साथ मैं खुद को दुनिया को बच्चा दिखता था.

बचपन के साथ तुम्हें भी खत्म समझ लिया मैने
और तब तुम मेरे साथ बराबर की होकर आयीं थीं..

बादलों पर चलते
ख्याब हसीं बुनते
हम कितना बतियाते थे चोरी के उन लम्हों में
दुनिया भर की बातें कर जाते थे

मै तुम पर कविता लिखता था
खुद को “पुरूरवा”
तुम्हें “उर्वशी” कहता था.

और जैसा अक्सर होता है
फिर एक रोज़
तुम्हारे “पुरूरवा” को भी ज्ञान प्राप्त हो गया
वो “उर्वशी” का नहीं लक्ष्मी का दास हो गया

तुम फिर आयीं मेरे जीवन में
मैने फिर तुम्हारा साथ पाया

वह तुम्हारा समर्पण ही था
जिसने चारदीवारी को घर बना दिया
पर व्यवहार कुशल मैं
सब जान कर भी खामोश रह गया

और उन्मादी रातों में
तुम जब नज़दीक होती
यह “पुरूरवा”, “वात्सायन” बन जाता
खेलता तुम्हारे शरीर से और रह जाता था अछूत
तुम्हारी कोरी भावनाऑ से

सोचता हूं ?
इस पूरी यात्रा में
तुम्हें क्या मिला
क्या मिला

एक लाल
और फिर यही सब .....

और जब तुमने लाली को जना था
तो क्यों रोयीं थीं तुम
क्यों रोयीं थीं???

35 comments:

Smart Indian said...

सटीक, सामयिक रचना!

सम्वेदना के स्वर said...

पिछले वर्ष महिला दिवस की पोस्ट पर (http://samvedanakeswar.blogspot.com/2010/03/blog-post_08.html)

हमनें कहा था कि “
“ आज संसद में महिला आरक्षण विधेयक प्रस्तुत किया जाएगा. कैसी विडम्बना है कि देश की लगभग आधी आबादी वाली महिलाओं को मात्र एक तिहाई प्रतिनिधित्व के लिये भी इतने विरोध झेलने पड रहे हैं. नेपोलियन ने कहा था कि तुम मुझे एक अच्छी माँ दो, मैं तुम्हें एक अच्छा राष्ट्र दूंगा. छः दशकों से पूरा मौका दिये जाने पर तो पुरुषों ने देश को पूरा बरबाद कर दिया, अब बारी है नारी शक्ति को मात्र एक तिहाई मौका देने की, जो होगी महिला दिवस पर एक सच्ची पुष्पांजलि”

विडम्बना देखिये एक राजनैतिक चाल की तरह की वह विधेयक संसद में आया और अब ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। कहीं कोई शोर भी नहीं इसे लोकसभा में पास कराने का!
एक माफी तो “प्रधानमंत्री” से इस पर भी बनती है।

Satish Saxena said...

बहुत खूब ...मननीय संवेदनशील रचना ...

रूप said...

आपकी यह कविता बड़ी मर्मस्पर्शी है, मुझे यह कहते हुए तनिक भी संकोच नहीं है कि ब्लोग्गेर्स की दुनिया की यह अब तक की सर्वश्रेष्ठ कविता है, इससे पहले भी जब मैंने आपको बारह बार विश किया था ,बर्थडे पर तब उसका अर्थ भी था , आपको याद होगा तारीख बारह थी सलिल जी . आपने अपने एक पोस्ट में इसका उल्लेख भी किया था , मैंने उसी वक़्त बताना चाहा था , पर कुछ चीज़े रह जाती हैं. और समय उन्हें पूरा करता है. आपकी इस कविता को मैंने आज सहेज लिया है. और मैं नि:शब्द हूँ , कैसे आपके उदगारों को मान दूँ. केवल इतना भर कि कविताओं की दुनियां में भी आप अद्वितीय हैं. मेरा साधुवाद........................!

नीरज गोस्वामी said...

स्त्री वेदना को बहुत शसक्त शब्दों में बयां किया है आपने...अद्भुत लेखन...बधाई
नीरज

sonal said...

कितनी सहजता से कितनी केहरी बात कह दी ,हर पंक्ति एक रिश्ता बयाँ कर रही है , ये पंक्तिया अभी तक मन में तैर रही है
और जिस तरह नदी पार हो जाने पर नाव साथ नहीं चलती मुझे भी तुम्हारा साथ अच्छा नहीं लगता था तुम्हारे साथ मैं खुद को दुनिया को बच्चा दिखता था.

--
Sonal Rastogi

Suman said...

bahut sunder rachna..........

अरुण चन्द्र रॉय said...

कुछ कहते नहीं बन रहा सलिल जी.... मन को छू गई कविता... लाली को जन के माएं नहीं रोती.. उन्हें तो रुलाया जाता है.. और यदि रोती भी हैं तो इसलिए कि वे जानती हैं उनका प्रारब्ध...

राजेश उत्‍साही said...

पुरुष की अपराध स्‍वीकारोक्ति ।

vandana gupta said...

क्या कहूँ निशब्द कर दिया……………सच का बेहतरीन चित्रण कर दिया।

सोमेश सक्सेना said...

वाह, महिला दिवस पर इससे सुन्दर प्रस्तुति हो ही नहीं सकती.

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

ये पंक्तियाँ याद आ गयीं -
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी / आँचल में है दूध और आँखों में पानी //
शिल्पीद्वय को नमन ! ! !
पुरुष जीवन के विभिन्न पड़ावों पर उसे प्राण और प्यार का दान देती स्त्री के विभिन्न रूपों का झकझोरने वाला लेखा-जोखा ......दान का निर्मोही प्रतिदान ...........अपनी धरती को तलाशती शक्ति ..........आत्मानुवीक्षण को विवश करती सशक्त रचना ......

प्रवीण पाण्डेय said...

पर न जाने बात क्या है,
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

चैतन्य बाबू!आज की यह अभिव्यक्ति सचमुच दिल को छू गई.. एक पुनर्जन्म का एहसास... मेरी तरफ से स्टैंडिंग ओवेशन!!

संजय @ मो सम कौन... said...

नि:शब्द...

vijai Rajbali Mathur said...

सत्य काव्य कथन है.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

भाउक कर देने वाली कविता। पाषाण ह्रदय में भी संवेदना के बीज बो देने वाली अभिव्यक्ति।
..माफी का क्या है! मांग लेंगे ..खुश ?

kavita verma said...

aur jab tumne lali ko jana kyon royi thi tum....us adhhore pan ki kalpana kar jo usne bhoga vah lali ko na bhogana pade....bahut sunder....

Rahul Singh said...

वैसे आज की नारी बुरा मान सकती है, लेकिन 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो'

Deepak Saini said...

आज पहली बार किसी कविता को दो से ज्यादा बार पढा है बार बार पढने को मन कर रहा है ।
बेहतरीन कविता की तारीफ के लिए शब्द कम पड रहे है
आभार

मनोज कुमार said...

सशक्त, सामयिक रचना।

रचना दीक्षित said...

सशक्त सामयिक रचना. महिला दिवस पर आज जितनी भी रचनाएँ पढ़ी उनमे सर्वेश्रेष्ठ रचना लगी. बधाईयाँ.

Patali-The-Village said...

सटीक, सामयिक रचना| धन्यवाद|

Arvind Mishra said...

बहुरूपा नारी या पुरुष ?
कविता प्रभावित करती है -

ZEAL said...

.

और जब लाली को जन्म दिया था तो क्यूँ रोई थी ....?

बस वहीँ से शुरू होती है एक नारी की पीड़ा , और उसके जीवन की जद्दोजहद जो आने वाली लालियों को एक बेहतर जीवन दे सकें क्यूंकि वो जानती हैं की इन मासूम लालियों को किन-किन दौर से होकर गुज़ारना होगा।

.

रचना said...

kyaa aap ki yae kavita naari kavita blog par athitii kavi kae rup mae dae saktee hun

पूनम श्रीवास्तव said...

salil bhai avam chaitany bhai
aap dono ko hi mera sadar naman
aaj naari diwas ke awsar par aapki utkrisht rachan padhne ko mili.
aapne bahut hi ek adhbhut dhang se stri ke vbhinn rupo ko badi kushlta ke saath darshaya hai.
aapke man me bhi yah baat hai ki ladki janm par aksar bahut jagho par khush ke bajaye dukh ka hi ijhaar kiya jaata hai jabki aaj naari kahi bhi purushhh se peechhe nahi hai fir bhi vah purtaya abhi tak iske liye samaaj dwara swikar nahi ki jaati .aaj aapki bhavna ko shat -shat naman karti hun kyon ki aapne puri imandari ke saath naari ke prati jo apni marm -sparshi rachna prastut ki hai vah waqai kabile tarrif hai.
ek baar fir se hardik badhai ----
poonam

सम्वेदना के स्वर said...

@ रचना जी

जरुर, नेकी और पूछं पूछं!

रचना said...

http://indianwomanhasarrived2.blogspot.com/2011/03/blog-post_09.html
here is the reposting of your poem

keep the good work going

Ravi Shankar said...

नि:शब्द छोड़ गयी रचना पर मौन नहीं । कुछ चुभा भीतर और बड़ी टीस हुई… ! कितनी बड़ी विडम्बना है कि हमें महिला दिवस मनाने की जरूरत होती है अपनी जननियों/अर्धांगिनियों/पुत्रियों को सम्मान देने के लिये…

नमन !

लोकेन्द्र सिंह said...

नारी का इससे सुन्दर चित्रण पहले कविता के रूप में कभी नहीं पढ़ा....

मेरे भाव said...

नारी का दर्द पुराण यूं ही चलता रहेगा हर युग में. समय, देश, काल और परिस्थितियों के साथ नारी वेदना का स्वरुप भी बदलता रहेगा. शुभकामना .

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

साधारण से शब्‍दों में कुछ असाधारण बातें कह दी आपने।

---------
पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?

उम्मतें said...

स्मार्ट इन्डियन की टिप्पणी हमारी भी !

रश्मि प्रभा... said...

खामोशी खुले सत्य की पुनरावृति नहीं चाहती

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