एक फ़िल्मी कहानी की तरह लगता है जब हम कहें कि एक आदमी दुसरे को उसकी ज़मीन बेच देने को कहता है और उस ज़मीन की कीमत भी देता है. दूसरा हाथ जोड़ता है, पैर पड़ता है कि उसे नहीं बेचनी ज़मीन, लेकिन पहला उसे ज़बरदस्ती कीमत देकर वो ज़मीन खरीद लेता है. जान देने से कीमत ले लेना उसे उचित लगता है. हज़ारों में उसे दाम मिलता है और कुछ ही समय में पहला उस ज़मीन को करोड़ों में बेच रहा होता है.
आप कहेंगे कि इस कहानी में नया कुछ नहीं है. दरसल इसी चरित्र को तो भू माफिया कहते हैं और लगभग हर बड़े छोटे शहर में यह किरदार पाया जाता है. मगर इस कहानी में यह पहला आदमी है सरकार. और उसके हाथ में १८९४ मॉडल का एक हथियार है जिसका नाम है भू अधिग्रहण क़ानून. इसी हथियार के जोर पर वो किसी किसान की ज़मीन औने पौने भाव में हथिया सकती है और बदले में उसकी झोली में कुछ सौ रुपये देकर (न देकर) उस ज़मीन को सोने के भाव बेच सकती है.
इस पूरे गोरखधंधे में बताया ये जाता है कि ज़मीन उनके लिए सड़क, हस्पताल, स्कूल बनाने के लिए ली जा रही है, लेकिन उन सडकों के आस पास एक पूरा सीमेंट का साम्राज्य बन जाता है, और उस हुकूमत के मालिक होते हैं राजा मिडास जिनके हाथ लगते ही वो सीमेंट सोना बन जाता है.
फिर शुरू होता है किसान आंदोलन, पुलिस की लाठियां, धारा १४४, नेताओं के स्वार्थ की रोटियां, उनकी नकली गिरफ्तारियां, मीडिया में खबरों की दुकान और बेचारे शायर की सोच:
सिसक-सिसक गेहूं कहे, फफक-फफक कर धान
खेतों में फसलें नहीं, उगने लगे मकान!/ (डा. कुंवर बेचैन)
23 comments:
यह लालची मानसिकता की क्रूर सच्चाई है।
आज के दौर की सच्चाई है यह !!
इंसान का लोभ
क्या कभी ख़त्म हो पाएगा !?!
वाकई... लालच की पराकष्टा के कुत्सित खेल की क्रूर सच्चाई अपने देश में तो यही चल रही है ।
है तो यह सच ही लेकिन जहाँ सरकारी अधिग्रहण नहीं हो रहा, वहाँ यह सब गोरखधंधा असंगठित क्षेत्र कर रहा है। और नई पीढ़ी के लिये एकमुश्त मिलने वाली रकम इज़ीमनी के रूप में बहुत बड़ा प्रलोभन है।
आप उपाय सुझाईये कि क्या होना चाहिये।
@ फिर शुरू होता है किसान आंदोलन, पुलिस की लाठियां, धारा १४४, नेताओं के स्वार्थ की रोटियां, उनकी नकली गिरफ्तारियां, मीडिया में खबरों की दुकान
**** और खत्म होता है सत्ता हथियाने पर। फिर ... शुरु होगा जमीन हथियाने का सिलसिला।
लूट सके तो लूट।
यकीनन यह बुरा कानून है इसमें सुधार होना चाहिए !
हार्दिक शुभकामनायें !
कानून में बदलाव तो केंद्र सरकार ही कर सकती है वो अभी तक चुप क्यों है बस ऐसे आंदोलनों में अपनी राजनीतिक रोटी सकने के लिए |
बड़ा जालिम है ये निजाम और उसका कानून !
उफ़ .....
धरती पुत्र लाचार है... धरती माता बेबस...
oof.
hruday vidarak ......
andher nagree me rah rahe hai hum log........
apane hoth seeye.......
maya kee maya aparampar hai.....
power ek aisa unmad hai jiske neeche insaniyat kuchal masal jatee hai .......
Vidambana to ye hai ki jo sath dete hai vo bhee apne kisee swarth k poora karne........ek hamara jamana tha jab Vinova bhave ke aagrah par bada kisaan bhumi heen kisan ko sweccha se jameen daan karta tha
aur aaj jo sarkar rakshak honee chahiye vo hee bhakshak ban baithee hai .
राजनेता तो बस अपनी रोटियां सेंक रहे है, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की किसान मर रहा है या जी रहा है,
हमारी जमीन भी सरकार अधिग्रहण कर रही है वो भी बहुत कम दाम में (पैसे भी किस्तों में मिलेंगे)
पड़ोस के गाव की जमीन जो ७ साल पहले अधिग्रहित हुई थी उसका मुआवजा आज तक किसानो को नहीं मिला जबकि करोडो का फायदा करके कंपनी ने सरे फ्लैट बेच दिए
इस देश में किसान होना ही पाप है
हरे भरे उपजाऊ बाग़ और खेत जितनी तेजी से ख़त्म होते जा रहे है लगता है पेट भरने के लिए अनाज नहीं मिलेगा ...
मेरठ से दिल्ली वाले बायपास पर जहाँ उपजाऊ खेत थे आज बहुमंजिला इमारतें और मॉल बन रहे है...
यह कानून अंग्रेजों के समय का है। ऐसे कई कानून हैं जो अंग्रेजों ने भारत की जनता पर शासन करने के उद्देश्य से बनाये थे। आजादी के बाद जिसने भी मुल्क पर शासन किया उसे अंग्रेजी मानसिकता, अंग्रेजों के बनाये कानून प्रिय लगे। उन्हें लगा कि इस तरह हम आसानी से राष्ट्र को अपनी बपौती बनाकर चल सकते हैं। किसी ने भी आम जनता के हित को सर्वोपरी मान उनके हित में कानून संशोधन की कोशिश नहीं की। वहीं कोशिश हुई जहाँ लोगों ने अपनी जानें दीं।
होना तो यह चाहिये था कि भू माफियों से जनता की रक्षा की जाती इसके उलट हो यह रहा है कि सरकारें ही भू माफिया बन, जनता की जमीन हड़प रही है।
जमीन का अधिग्रहण राष्ट्र हित मे आवश्यक हो तो यह जमीन मालिक की शर्त पर होना चाहिए। कम से कम उसे इतना मुआवजा तो जरूर मिलना चाहिए कि उसे जमीन खोने का आर्थिक कष्ट न हो। इस मुआवजे के लिए किसी को संघर्ष करना पड़े. यही शर्मनाक है।
एक हाथी जो सड़क पर भीख माँगा करता था, उसे प्यार दिया गया और उनके लिए अभयारण्य बनाया गया तो वो भिखारी से वन्य प्राणी बना... जहां उसकी वंश वृद्धि हुई.. यह नमूना है थाईलैंड का.. और यहाँ जंगलों को काटकर सब्सिडी पाने के नाम पर फर्जी उद्योग लगाए गए...उस जंगल में अब दोपाये बसते हैं...
@देवेन्द्र पाण्डेय जी:
आभार आपका..आपने "मो सम कौन"जी के प्रश्न का आंशिक उत्तर दे डाला.. हमारी कोशिश होगी कि उनके प्रश्न का उत्तर तो नहीं सुझाव प्रस्तुत कर सकें अपने अगले अंकों में!!
इस कानून के बल सरकारें बिल्डरों के अधीन माफ़िया की तरह काम करने लगीं हैं..
प्रशासक सुप्रबँधन के बजाय प्रॉपर्टी-डीलिंग के सारे हथकँडे अपनाने में व्यस्त हैं ।
.
Indeed pathetic !
जुल्म ढाये जाओ , बचारे बेज़बान क्या बिगाड़ लेंगे। सरकारी दानव अपना तांडव कर ही रहे हैं । एक ही उपाय है - 'शिक्षा' । जागो मोहन प्यारे...अब तो चेत जाओ, नहीं तो औलादें भी यही जुल्म सहेंगी ।
.
समस्या जटिल है। जनता की ज़मीन को तभी लिया जाना चाहिये जब ऐसा राष्ट्र और समाज के हित में अनिवार्य हो और दूसरे विकल्प लगभग असम्भव या विनाशकारी हों।
"अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपनों को दे" आज का यही मन्त्र है
Sabko roti dene wala kisan sach mein kitna asahay hai desh mein?
saarthak samvedansheel prastuti ke liye aabhar!
Post a Comment