सम्वेदना के स्वर
जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-र-त बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....
Saturday, February 27, 2010
होली तो इतिहास में हो ली...
Wednesday, February 24, 2010
फ़िल्मी गालियाँ और मेरे वकील - डा राही मासूम रजा
आज पहली बार अपनी बात रखते हुए ये समझ में नहीं आ रहा कि जो मैं कहने जा रहा हूँ उसके हक में हूँ कि खिलाफ। मुद्दा है फिल्मों के संवाद और गीतों में "गालियों" के बढ़ते प्रयोग - कितने उचित और कितने अनुचित। गानों में तो फिर भी ये एक हद के अन्दर होते हैं, लेकिन फिल्म के डायलाग तो उन हदों को पार कर जाते हैं जिसके बाहर जाने की एक सभ्य कहे जाने वाले समाज के शब्दकोश की अनुमति नहीं है। पहली बार ऐसा फिल्म "बैंडिट क्वीन" में सुनने को मिला था। उसके बाद धीरे-धीरे कुछ और फिल्मों में। फिर एक सिलसिला सा चल पड़ा। पिछले दिनों कुछ रियलिस्टिक फिल्मों का दौर शुरू हुआ। और उन फिल्मों की परफेक्शन के लिए ये ज़रूरी था कि उनके किरदार गालियाँ बकते, क्योंकि वे उस समाज से आते थे जहाँ गालियाँ आम बोलचाल में बेधड़क बोली जाती हैं। गानों में "कमीना" या "कमबख्त" जैसे शब्दों तक ये सिलसिला सीमित है। हाँ, एक गाना " ऐ गनपत चल दारू ला" में कुछ शब्द अनुचित हैं।
मैं अभी तक कन्फ्यूज़ हूँ कि मैं क्या कहूं। और ऐसे में अपने गुरु डा राही मासूम रजा के उपन्यास " ओस की बूँद" से उनकी भूमिका यहाँ पर कोट करना चाहूँगा । क्योंकि फिल्मों में ये बातें नया प्रयोग हो सकती हैं, उपन्यासों में इतनी हिम्मत सिर्फ उन्होंने ही दिखाई है। इसलिए उनकी कलम से निकले शब्द मेरे शब्दों से ज्यादा वज़नदार साबित होंगे।
" बड़े बूढों ने कई बार कहा कि गालियाँ न लिखो, जो आधा गाँव में इतनी गालियाँ न होतीं तो तुम्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता. परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि क्या मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूँ कि मुझे साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिले? पुरस्कार मिलने में कोई नुकसान नहीं, फायदा ही है. परन्तु मैं साहित्यकार हूँ. मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूंगा. मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूं कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूंगा. कोई बड़ा बूढा यह बताये कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं वहां मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूं? डोट डोट डोट. तब तो लोग अपनी तरफ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं.
गालियाँ मुझे भी अच्छी नहीं लगती. मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है. परन्तु लोग सडकों पर गालियाँ बकते हैं. पड़ोस से गालियों की आवाज़ आती है. और मैं अपने कान बंद नहीं करता, यही आप भी करते होंगे. यदि मेरे पात्र गालियाँ बकते हैं तो आप मुझे क्यों दौड़ाते हैं.? वे पात्र अपने घरों में गालियाँ बक रहे हैं. वे न मेरे घर में हैं - न आपके घर में. इसीलिए साहब, साहित्य अकादेमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जुबान नहीं काट सकता। "
आखिर में निदा फाजली साब के कलाम के साथ ये स्वीकार करना चाहता हूँ कि
कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है,
जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।
Friday, February 19, 2010
आओ सारे पहन लें आईने
कई बार किसी कहानी, नाटक, कविता या सिनेमा को देखते-सुनते हुए ऐसा लगता है कि हम इनके किरदारों से कहीं मिल चुके हैं. कुछ किरदार हमसे इतने करीब होते है कि उनसे अपनापन सा हो जाता है. एक ऐसा रिश्ता सा बन जाता है कि उनकी चर्चा हम अपने परिवार के सदस्यों कि तरह करने लगते हैं. रोज़मर्रा की बातचीत में भी हम उनका नाम ऐसे लेते हैं मानो किसी अपने की बात कर रहे हों. आज की तारीख में कोमलिका, सिंदुरा, कावेरी, मोहिनी, जिज्ञासा जैसे नाम सुनकर हो सकता है आपकी भवें तन जाएँ या आप गुस्से में गालियाँ तक बक दें इनके नाम सुनकर. वज़ह....सिर्फ इतनी कि ये औरतें बानी, प्रेरणा, सलोनी, कशिश या फिर अनुराग, नाहर या वालिया की दुश्मन हैं. लेकिन इनमें से न तो आपकी किसी से दोस्ती है - न दुश्मनी. फिर ऐसा क्यूँ?
देवदास-रोमेओ, रॉबिनहुड-हातिमताई, शेर्लोक होम्स-फेलु दा, गब्बर-मोगाम्बो वगैरह कई ऐसे नाम हैं जो किसी परिचय के मोहताज नहीं. अपने आस पास दोस्तों-रिश्तेदारों की पिछली पीढ़ी पर नज़र डालें तो हमें शम्भू, कृष्ण, राम, मुरारी, तुलसी या मीरा तो कई मिल जायेंगे लेकिन कंस, रावण, मंथरा या कैकेयी शायद ढूंढे से न मिलें. ऐसा क्यूँ?
दरसल साहित्य और फिल्मों ने हमें कुछ ऐसे किरदार दिए हैं जो किसी न किसी तरह हमसे ऐसे जुड़ गए हैं कि जाने पहचाने से लगते हैं. इनकी चर्चा बिना किसी भूमिका के हम कर लेते हैं. इनसे हम मोहब्बत या नफरत भी करते हैं जैसे आम ज़िन्दगी में किसी के साथ हो सकती है. लेकिन क्या आपने किसी ऐसे किरदार के बारे में सुना है जो पूरी फिल्म में था ही नहीं? पूरी फिल्म में एक बार भी वो परदे पर दिखाई नहीं दिया, सिर्फ उसका नाम लिया जाता रहा. अगर कहानी में ट्विस्ट पैदा करूँ तो ये वो किरदार है जो फिल्म कहीं भी नहीं है और कई चेहरे में नज़र भी आता है.
सस्पेंस हमेशा सूखी रोटी पर अचार कि तरह होता है. इसलिए अगर थोड़ी पहेली और बुझाते हुए ये कहूँ कि उसकी तुलना आप चारखाने वाली कमीज़ और धोती पहने उस आदमी के साथ कर सकते हैं, जो बरसों से रोज़ सुबह सुबह आपके सामने हाज़िर हो जाता है लेकिन कभी कुछ नहीं कहता. और तो और फैंटम या मैन्ड्रेक की तरह उसका कोई नाम भी नहीं है. लोगों ने आर. के. लक्ष्मण के उस चरित्र का नाम "आम आदमी" रख छोड़ा है.
फिल्मों में अगर कोई ऐसा चरित्र गढ़ सकता है तो वो है सिर्फ एक आदमी- स्व. हृषिकेश मुख़र्जी. और जिस चरित्र के लिए मैंने इतना शब्दजाल बुना है वो है फिल्म आनंद का "मुरारीलाल". डा. भास्कर उर्फ़ बाबु मोशाय और आनंद जैसे सशक्त चरित्रों के बीच मुरारीलाल की एक अलग पहचान है जो फिल्म में अलग अलग शक्लों में मौजूद है और शायद कहीं भी नहीं है.
मुरारीलाल नाम है एक तलाश का जो हर किसी को है, जिसको पाकर उसकी तलाश पूरी हो सके. आनंद की मानें तो हर आदमी एक ट्रांसमिटर की तरह है, जिस किसी ने इस ट्रांसमिटर की तरंगों को पकड़ लिया वही मुरारीलाल है. या डा. मुन्ना भाई की जादू की झप्पी किसी भी इसा भाई सूरतवाला को मुरारीलाल बना सकती है. लेकिन इस खोज के लिए ज़रूरी है कि हर किसी का दिल टटोल कर देखा जाये. सच है
इक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखिये.
Thursday, February 18, 2010
निर्मल पाण्डेय
Tuesday, February 16, 2010
खबरों का आतंक
कलम का जादूगर या कलम का सिपाही जैसे लफ्ज़ आज अपना मतलब खो चुके हैं. पत्रकारिता से क्रांति का गवाह रहा है हमारा देश. फिर एक लम्बा इतिहास रहा स्वतंत्र, निर्भीक और निष्पक्ष समाचारपत्रों का. और आज का दौर है इलेक्ट्रोनिक मीडिया का. ये समाचार "देता" नहीं "दिखाता और सुनाता" है. ऐसे में चुनने का हक नहीं आपको, जहाँ जाओ, जिस चैनल को देखो चीखो-पुकार मची है. खामोश अखबार की जगह चीखता हुआ, आपके कानों में बार बार हथोड़े की तरह वार करता, ये मीडिया और इसके समाचार चैनल, मानो विवश कर रहे हों आपको कि जो वो कह रहे हैं वही सच है। कुछ पुरानी कहावतें आज याद आ रही हैं।
कलम तलवार से ज्यादा ताक़तवर होती है.
बड़ी ताक़त के साथ बड़ी जिम्मेवारी भी आती है.
ताक़त इंसान को भ्रष्ट करती है और बेशुमार ताक़त बेशुमार भ्रष्ट कर देती है।
ये तीनों बातें कलम के तलवार बन जाने का सफ़र बयां करती हैं. इसमें कलम की जगह इलेक्ट्रोनिक मीडिया की तलवार ने ले ली. जो तलवार क्रांति ला सकती थी, वो आतंक फ़ैलाने लगी. और आज आतंक के बदलते चेहरे में ये पता लगाना मुश्किल हो रहा है कि कौन कितना बड़ा आतंकवादी है.
आतंक की परिभाषा बड़ी मुश्किल है. लेकिन हर वो काम जिससे लोगों में डर का माहौल पैदा हो - आतंकवाद है. अगर इस परिभाषा पर ग़ौर करें तो आतंकवादी संगठन और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में कोई फर्क नहीं रह जाता. फर्क सिर्फ खून खराबे का हो सकता है.
एक मौत के सौदागर हैं - दूसरे लाशों के तमाशाई. एक चोरी छुपे करता है - दूसरा खुले आम.
दोनों का मकसद
ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी (गलत) बात पहुँचाना.
सिर्फ और सिर्फ सनसनी फैलाना
अपने अहंकार का डंका पीटना - भला उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे (हो सके तो उसकी कमीज़ पर पान थूक दो).
अपना मतलब साधना और दिखाना कि बहुत बड़ा सामाजिक मकसद छिपा है उसके पीछे.
संवेदनहीनता की पराकाष्ठा.
और भाषा - फलां पार्टी के सांढ़ खुल्ले घूम रहे हैं सडकों पर; कुचल डाला भारत ने बंगला देश को (क्रिकेट मैच में); ख़तम हो जाएगी ये दुनिया...
कॉलेज के दिनों में मैं कहा करता था कि अगर फिल्मों में नंगापन दिखाना हो तो यौन शिक्षा पर फिल्म बनाओ. किसी को ऐतराज़ भी नहीं होगा और तुम्हे आज़ादी होगी कि फिल्म में आधे घंटे की शिक्षा और बाकी के ढाई घंटे में नंगापन दिखाओ. और यह बात गलत भी नहीं है. अन्धविश्वास दूर करने के लिए चमत्कार दिखाए जा रहे हैं और नतीजा ये निकालते हैं कि ये सब अन्धविश्वास है. अपराध से आगाह करने के नाम पर घटनाओं के नाट्य रूपांतर दिखाते हैं, जो वास्तविक घटना से ज्यादा भयानक होते है. और नतीजा ये निकालते हैं कि हम आपको इस तरह के अपराध से आगाह कर रहे हैं. समाचारों में अपराध को जगह देने के बदले अपराध के विशेष कार्यक्रम दिखाए जाने लगे. रामसे बंधुओं की फिल्मों की तरह बैक ग्राऊंड संगीत से लैस, पूरी तरह आपको आतंकित करने को तैयार सीरियल. और उसपर तुर्रा ये कि ये सब आपको आगाह करने के लिए किया जा रहा है.
२६/११ की घटना के समय आतंकवादी सैटलाइट फ़ोन से संपर्क में थे, ए टी एस के लोग घेराबंदी कर रहे थे और मीडिया घेराबंदी की खबर लाइव दिखा रहे थे. उनकी ये "सबसे तेज़" खबर आतंकवादियों तक उनके आकाओं की मदद से पहुँच रही थी सैटलाइट फ़ोन से.
चैन से सोना है तो जाग जाइये... बाहर के आतंकवादियों से हमारी बहादुर पुलिस और सेना लड़ाई करने में समर्थ हैं. लेकिन घर के अन्दर , बल्कि आपके बेड-रूम में छिपे आतंकवादी से तो आपको ही लड़ना होगा. एक आम आदमी की मौत की खबर को सुर्खियाँ बनाकर ये आतंक का ऐसा खेल खेलते हैं जिसमें न वो आम आदमी होता है कहीं; न कहीं मौत होती है, बस होता है एक आतंक. बकौल जनाब मुनव्वर राना
लिक्खी गयी हमारे लहू से ही सुर्खियाँ
लेकिन हमीं खबर से अलग कर दिए गए।
(नवीन जी की प्रतिक्रिया से प्रभावित होकर)
Sunday, February 14, 2010
मदारी
होता है शबोरोज़ तमाशा मेरे आगे
इसके पहले कि वो सम्भलता या समझता; सामने से आती कार के अगले पहिये उसके सर के ऊपर थे। कार चलाने वाले ने पूरी कोशिश की थी रोकने की, लेकिन पहियों की चीख के तले उस आदमी की चीख दब कर रह गयी। दोनों बदकिस्मत थे, एक की जान गयी - दूसरे की जान निकली जा रही थी।
देखते ही देखते सड़क पर लोगों का समंदर उमड़ पड़ा। पुलिस केस कहकर लोगों ने यह देखने की भी ज़हमत नहीं उठाई कि वो इन्सान जिंदा भी था या मर गया। पुलिस आदतन देर से आने वाली थी, क्योंकि ये फैसला करना मुश्किल हो रहा था कि वो लाश जिस ज़मीन पर पड़ी थी वो भारतवर्ष के किस थाने में आतीहै।
लोगों ने लाश को घेर रखा था और आज किसी को कोई जल्दी नहीं थी। आज ऑफिस देर से पहुंचे तो एक सच्ची कहानी होगी बताने को कि बस ज़रा सी किस्मत अच्छी थी वरना उस आदमी कि जगह उनकी लाश सड़क पर पड़ी होती।" आज तो ऑफिस के हीरो बने होंगे वो। एक सनसनीखेज़ हादसे के लाइव द्रष्टा। सबसे तेज़। खबर के केंद्र में होगा वो मरने वाला आदमी , लेकिन हीरो होंगे वो सब लोग जो आज ऑफिस देर से पहुंचे होंगे "बस बाल बाल बचकर।"
खैर, वहीँ सड़क पर एक और आदमी खड़ा है। दो दिनों से कुछ खास नहीं कमाया बेचारे ने। जानवरों के तमाशे तो मेनका गाँधी ने बंद करवा दिए और जादू का खेल सड़क पर घूमने वाले योगेश सरकार ने। अब उसकी पुकार पर लोग रुकते तक नहीं। आज एक साथ इतने लोगों की भीड़ देखकर, उसकी दो दिनों की भूख बर्दाश्त से बाहर हो गयी। उसने बिना वक़्त जाया किये वहीँ पर अपनी चादर बिछा दी। उसका बेटा थाली पर चम्मच से ताल देने लगा। और वो चिल्ला चिल्ला कर आवाज़ लगाने लगा," मेहरबान! कदरदान!! साहेबान!!! हिन्दू को राम राम, मुसलमानों को सलाम! अभी आपके सामने, मैं अपने बच्चे का सर काटकर उसे दुबारा जिंदा कर दूंगा। ये हैरत अंगेज़ तमाशा देहिये साहेबान और इस गरीब की चादर पर आठ आना-एक रूपया देते जाइये। उपरवाला आपके बच्चों को सलामत रखेगा।"
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१३ फ़रवरी २०१०-पुणे : शाम ७:०० बजे। एक विस्फोट जिसमे कुछ लोग मारे गए और कई घायल हुए। टीवी पर ये खबर छाई हुयी है । लाशों और खून के दृश्य के ऊपर कैमरा फिसल रहा है। लोग अपने अपने परिजनों के बारे में जानकारी के लिए क़तर में खड़े हैं पागलों की तरह।
तभी अचानक एक पुलिसवाला आता है और सामने खड़े व्यक्ति से कहता है," आपने रूपा फ्रंट लाइन पहना है तो आगे जाइए।"
लोगों की चीख पुकार और रोने की आवाजें गूँज रही हैं टीवी पर ,"डोकोमो ..को को मो मो ..इया आयो॥"
संवेदनहीनता की पराकाष्ठ है ये। क्या इतनी दुखद घटनाओं के बीच मदारीगिरी आवश्यक हैं? सच है...
अब नयी तहज़ीब के पेशेनज़र हम
आदमी को भून कर खाने लगे हैं॥