रजनीश या ओशो भारत के सर्वाधिक विवादास्पद नामों मे से एक है. परंतु किशोरावस्था से ही इस व्यक्ति से मैं कैसे जुड़ता चला गया, यह सोचकर आज भी अचम्भित हो जाता हूँ. सलिल भाई कि तरह मुझे बचपन में मंटों तो नहीं मिला पढ़ने को, परन्तु जब कभी किताब की दुकान से मैं रजनीश टाइम्स ले आता था पढ़ने के लिये तो घर में हंगामा हो जाता था.उस समय की रवायत के मुताबिक़ ही, मेरे घर में भी ओशो को एक ख़तरनाक एवम् भ्रष्ट सन्यासी के रूप में ही जाना जाता था. बस, जैसा स्वयम् ओशो कहते हैं कि “न या नकार” में बहुत ऊर्जा छिपी होती है और जिस चीज़ के लिए मना किया जाता है, उसके पीछे एक आकर्षण अपने आप चला आता है. शायद यही कारण रहा, मेरा ओशो को छुप छुप कर पढ़ने का.
स्कूल के बाद इंजीनियरिंग कालिज में प्रवेश मिल गया तो माशाअल्लाह!मानो जन्नत हाथ आ गयी!! दस हज़ार एकड़ में फैले, गोविन्द वल्लभ पंत कृषि एवम् प्राद्यौगिकी विश्वविधालय, पंतनगर, नैनीताल का माहौल ही कुछ ऐसा था... हरी भरी वसुन्धरा के बीच गुरुदेव रबींद्र नाथ ठाकुर के शांति निकेतन की तरह...
विश्वविधालय के बीचों बीच स्थित पुस्तकालय (इन्दिरालय नाम है इसका)...मेरे विचार से भारत के बेह्तरीन पुस्तकालयों मे से एक होगा और यहीं मेरा ओशो प्रेम परवान चढता गया.
ओशो के दृष्टिबोध को समझते समझाते जब जीवन के उतार चढाव से दो चार होना पड़ा तब कुछ कुछ समझा कि सुख और दुख से परे, आनन्द की भी एक स्थिति होती है, जहां उत्तेजना का उन्माद नहीं वरन् शुद्ध साक्षीत्व जैसी भी कोई स्थिति होती है. पढे लिखे लोगों की इस दुनिया में हम अपने तथाकथित ज्ञान के बोझ से ही दबे जा रहे हैं.... जबकि ओशो एक ऐसे मौन की तरफ इशारा करते है जो शब्दों के पार... शब्दातीत है, जहां से हम अस्तित्व से जुड़ते हैं...
ओशो कहते हैं...
मैं चाहता हूं तुम्हें निर्भार करना -
ऐसे निर्भार कि तुम पंख खोल कर
आकाश मे उड़ सको.
मैं तुम्हें हिन्दू,मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध
नहीं बनाना चाहता
मैं तुम्हे सारा आकाश देता हूं.
अक्सर ऐसा लगता है कि यह सारी आपाधापी दरअसल एस्केपिज़्म ही है...हम अपने आप से भाग रहें हैं...कभी निर्भार ही नहीं हो पाते हम...स्वयम् को किसी न किसी काम में इंगेज़ कर के ही मानते है हम...क्योंकि अकेलापन सालता है...
मै कौन हूँ? मै क्यों हूँ? यह सवाल कोंचता है भीतर तक...उत्तर माँगता है. फिर शायद इसी सवाल से बचने के लिये हम अपने सपने गढ़ते हैं और मैं फलाना....मै ढिमाका..का किस्सा आगे बढता जाता है.
ओशो कहते है कि “मेडिटेशन इज़ द ओनली मेडीसिन”. ध्यान का प्रारम्भ वस्तुत: बाहर की दौड़ से स्वयम् को भीतर खींच लेना है. ओशो मन के बारे में जो कह रहे हैं, उसका हम सभी को सीधा अनुभव है. मन या तो हमेशा आगे कूदता रह्ता है या पीछे घसीटता रह्ता है, लेकिन वह कभी वर्तमान क्षण में नहीं होता है. मन एक सतत बडबड़ाहट है, यही बडबड़ाहट हमें वर्तमान में होने और जीवन को उसकी पूर्णता में जीने से वंचित कर देती है. हम कैसे समग्रतापूर्वक जी सकते हैं जबकि हमारा मन स्वयम् के साथ ही बड़बड़ा रहा है.
एक छोटा सा प्रयोग करें दस मिनट के लिये आंखे बन्द करके बैठ जायें और अपने चारों ओर होने वाली आवाज़ों को सुनें, अपने शरीर के प्रति बोधपूर्ण होने की कोशिश करें. हम पायेंगे कि एक मिनट के अन्दर ही, मन फिर से बातें करना शुरु कर देता है. आख़िर भीतर चल क्या रहा है हमारे? किसी और को यदि हम ये बातें करते सुनें, तो निश्चित ही उसे विक्षिप्त करार देगें. ओशो बार-बार यही कहते हैं कि ध्यान में डूबो. इस बडबड़ाते मन को सीधे बन्द नहीं किया जा सकता लेकिन ध्यान के द्वारा मन का शोरगुल कुछ धीमा हो जाता है और फिर अंतत: मन विलीन हो जाता है. तब जीवन मे अमन उतरता है.ओशो समझाते हैं,साक्षी का सीधा सरल अर्थ होता है “आग्रह्शून्य तटस्थ अवलोकन : यही है ध्यान का पूरा रहस्य”
वह गुरु पूर्णिमा, मेरे जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिन था, जब तीन दिन ध्यान ऊर्जा में नहाने के बाद मन का अहंकार समर्पण को तैयार हुआ और ओशो परम्परा में अपना यह नाम स्वामी चैतन्य आलोक मुझे मिला. ओशो का नव-सन्यास कई मायनो में अनूठा है, जहाँ आप स्वयम् के लिये अपना उत्तरदायित्व स्वीकार करते हैं और साधक बनकर जीवन जीना शुरु करते हैं.
ओशो कहते हैं: मैं गुरु इस मायने में ही हूं
कि मेरी साक्षी में तुमने
स्वयम् को जानने की
यात्रा आरम्भ की है,
इससे आगे मुझसे उम्मीद मत रखना.
उफ!! कितनी गहरी स्वत्रंता है यह!
और कितना गहरा उत्तरदायित्व भी!
अहोभाव प्यारे ओशो !!