सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Sunday, July 4, 2010

पंडित अरविंद मिश्र से चाँद पर एक रार

हमारी पिछली पोस्ट सच्चा चाँद - झूठा अमेरिका पर हमारे आमंत्रण पर पंडित अरविंद मिश्र ने निम्नलिखित टिप्पणी दी थी.

यह एक क्रेजी अमेरिकी द्वारा फैलाई सनसनी मात्र है ...संशयात्मकता विज्ञान की आत्मा है मगर मूर्खता उसका कफ़न... आज अगर कोई इस बात को कहता है की चन्द्रमा पर मनुष्य का अवतरण धोखा धड़ी मात्र था और उसके पक्ष में रोचक उदाहरण और लच्छेदार शब्दों में तर्कों का पहाड़ तैयार करे तो मेरी निगाह में वह एक बड़ा अहमक ही है -मुझे क्षोभ और अफ़सोस है ऐसे लोगों पर ..अब आप रिएक्ट करें तो मेरी बला से ... यद्यपि मैं इन कड़े शब्दों के लिए आपसे क्षमा माँगता हूँ .मगर विज्ञान आप सरीखे लोगों से ही धक्के खा रहा है ..मैं छठवीं में था शायद जब यह युगांतरकारी घटना घटी थी और मेरे बाल मन ने सहज ही इसे सच मान लिया था ..मैंने इस पर एक कोलाज किया था
अगर ऐसे दावे को स्वीकार नहीं करते तो इसका मतलब आप मनुष्य की असीम शक्तियों और संभावनाओं पर भी विश्वास नही करते आप परले दर्जे के दकियानूसी चेतना के आदमी हैं ..बदलिए अपने को ...
चन्द्रमा पर मनुष्य का दूसरा अभियान जल्द ही शुरू होने पर आपको अपने जीवन काल में ही सच से सामना हो जाएगा...बाकी साईंस ब्लागर्स और साईब्लाग भी देखते रहा करिए -खुद अपनी अच्छाई के लिए .....

इस टिप्पणी के जवाब में पहली बार हम दोनों अलग अलग अपने वक्तव्य प्रस्तुत कर रहे हैं. यह पोस्ट न तो उनकी बात का खण्डन है, न हमारी बात मनवाने का पूर्वाग्रह. यह सिर्फ उनके जजमेंटल कमेंट का प्रत्युत्तर है. हमारा सवाल आज भी वहीं खड़ा है, क्योंकि यह एक राजनैतिक सवाल है, जिसका जवाब विज्ञान के ब्लॉग्स में सम्भव नहीं.


चैतन्य आलोकः
आपका गुस्सा सर माथे. परंतु एक शिकायत है आपसे, हम अहमकों को. आपने हमारे मूल प्रश्न का कोई जबाब न देकर अवैज्ञानिक भूल कर दी है, सर जी! मूल प्रश्न यही है कि अगर 1969 से 1972 के बीच दे दना दन अमरिकी अंतरिक्ष यात्री चाँद पर उतर रहे थे तो फिर तकनीकी क्रांति के युग में यह घटना पिछले चार दशकों में क्यों न दोहराई जा सकी. क्या इसीलिये नहीं कि इस दकियानूसी दुनिया को अब उस तरह बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता?
उस समय का सोवियत संघ (अब का रूस) अमरिका से अंतरिक्ष विज्ञान में आगे ही था परंतु 1969 से 1989 तक (1989 में सोवियत संघ के विघटन के शुरु होने तक) के दो दशक में वो इस अमरिकी बढत का सामना नहीं कर सका, जबकि कहा जा रहा है इस काम मे प्रयोग होने वाली तकनीक सैलफोन से भी कमतर थी. कोरिया, चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, इंगलैंड कोई तुर्रम खाँ देश भी इस काम को अंजाम नहीं दे सका?
आपने हमें अवैज्ञानिक किन्हीं डिग्रियों के कारण कहा है तो सनद रहे कि मैं एनर्जी सिस्टम्स में इंजीनियरिंग का स्नातकोत्तर हूं और सलिल भाई केमिस्ट्री के स्नातकोत्तर हैं. डिग्रियों से परे विज्ञान और वैज्ञानिक सोच हमारे जीवन की परिपाटी है. हम सत्य के खोजी हैं! हमारे पूर्वाग्रहों को खंडित करने वाले सत्य भी हमें सहज स्वीकार्य हैं. मनोविज्ञान में भी हमारी रुचि है क्योंकि यह विज्ञान हमारी सोच के सन्दर्भ में है. इसी आधार पर लगता है कि आपके बाल मन की कल्पनाओं को खंडित करनें का दुस्साहस किया है, हमारी इस पोस्ट नें!
विज्ञान की श्रेष्ठता में हमारा अटूट विश्वास है. इसी विश्वास के आधार पर हम मानते हैं कि आज नहीं तो कल चाँद पर मनुष्य भी पहुचेगा और मानव बस्तियाँ भी बसेंगी.
कल रात लोक सभा चैनल पर एक चर्चा के दौरान कोई वेदांती स्वामी जी “नाभिकीय ऊर्जा” के सन्दर्भ में कह रहे थे कि वेदों में इसका स्प्ष्ट उल्लेख है, इसमें नया क्या है?. क्योंकि आज नाभिकीय रिएक्टर एक प्रामाणिक सत्य है, इस कारण क्या यह भी मानेगें आप कि “वैदिक सभ्यता की ऊर्जा आपूर्ति नाभिकीय रिएक्टर करते थें”?
वैज्ञानिक प्रयोगधर्मिता हमेशा एक परिकल्पना पर आधारित होती है. यूरी गगारिन से लेकर आज तक सम्पन्न स्पेस मिशन चाँद को छूने की मानवीय कल्पनाओं के परिणाम ही हैं. परंतु यहां बात उस अमरिकी दावे की सत्यता की है जो तब किसी और उद्देश्य की पूर्ति करता स्पष्ट दिखता है. उस दावे की हर दृष्टिकोण से पड़ताल करना एक नितांत वैज्ञानिक कृत्य है.
अरविन्द मिश्र जी, आप तो एक साईंस ब्लोग भी लिखते हैं, इस कारण आप को जानकारी होगी ही कि हर साल न जाने कितनी ही वैज्ञानिक शोधों की घोषणा होती है, जिन्हें बाद में वैज्ञानिक कम्यूनिटी ही जाली करार दे देती है!!
आइये खोजें ? प्रश्न पूछें, जबाब तलाशें और वैज्ञानिक उत्तर दें!!

सलिल वर्माः
बरसों पहले बिमल मित्र का एक उपन्यास पढा था, नाम अब याद नहीं. उसमें एक व्यक्ति का इकलौता जवान बेटा एक हादसे में मारा गया. इस घटना के बाद वह सज्जन एक अजीब सी मानसिक स्थिति में चले जाते हैं. और जब वे उबरते हैं तो उनके पास एक सिद्धांत होता है, जिसके अंतर्गत वो अपने मृत पुत्र से ऐसे बात चीत करते हैं, जैसे वो उनके पास बैठा हो, सशरीर. उनका यह सिद्धांत विश्वप्रसिद्ध होताहै और वो इस विषय पर अपना व्याख्यान देने सारी दुनिया में जाते हैं. उन्हें कई पुरस्कार भी मिलते हैं और इस विषय पर कई शोध भी होते हैं. अचानक एक दिन उनके दरवाज़े पर दस्तक होती है और उनका पुत्र जीवित उनके सामने खड़ा होता है, उनके सारे ज्ञान को नकारता हुआ. जीवित प्रमाण उनके मिथ्या ज्ञान का. उन्होंने अपने पुत्र को पहचानने से इंकार कर दिया.
पंडित अरविंद मिश्र ने भी इसी तरह छठवीं क्लास में जो कोलॉज बना रखा था, चंद्रविजय अभियान का वह आज भी अंकित है उनके मस्तिष्क में. अब उसको नकारने का दुःसाहस करना उनके बस की बात नहीं. लेकिन जो कुछ भी उन्होने कहा उसके बाद भी हमारा प्रश्न तो वहीं का वहीं है,फिर जवाब क्या दिया उन्होंने, या सवाल क्या उठाया!!
एक बच्चे ने एक सवाल किया मास्टर से, जिज्ञासा थी उसके मन में और उत्तर पर अधिकार था उसका. मास्टर ने दो जवाब दिए, “बेवक़ूफ़! इतना भी नहीं मालूम!” और दूसरा जवाब, “अहमक़! फ़ालतू के सवाल करके दूसरों का समय बरबाद करता है.” दोनों में से कौन सा जवाब सही है, यह तो पता नहीं, लेकिन आए दिन ये दोनों जवाब हर सवाल के लिए दिए जाते रहे हैं. और पंडित जी ने वही जवाब हमारे सवाल का भी दिया,बच्चा समझकर. ज्ञात हो मैं भी छठवीं में पढता था जब यह घटना घटी थी. और पंडित जी के अनुसार दुबारा यह घटना घटी तो मेरे जीवन काल में (यदि जीवित रहा) वह दूसरी घटना होगी.
विज्ञान के छात्र हम भी हैं, ये बात और है कि विज्ञान के ब्लॉग नहीं लिखते. पढ़ाया भी है कई साल तक मैंने , और जिन्हें हमने फ़ारसी पढ़ाई वो तेल भी नहीं बेच रहे हैं. लिहाजा, इतना तो सच है कि डाल्टन से लेकर नील्स बोर तक हर वैज्ञानिक ने पिछले की खाट खड़ी की है, लेकिन न बर्जीलियस ने डाल्टन को अहमक़ कहा, न अवोगैड्रो ने बर्जीलियस को बेवक़ूफ बताया और न ही नील्स बोर ने ऐवोगैड्रो को दकियानूसी.
किसी भी पूछे गए सवाल के जवाब देने से पहले की प्रक्रिया दो तरह की होती है. या तो आपको उसका जवाब पता है तथ्य सहित, या नहीं पता. पता है तो तथ्य से मेल खाने वाले प्रमाण सही उत्तर होंगे और न मेल खाने वाले प्रमाण ग़लत. लेकिन जवाब न मालूम हो तो सवाल ग़लत हो जाए ऐसा तो क़तई नहीं होता देखा. और कम से कम सवाल पूछने वाले को बेवक़ूफ़ बताकर तो बिल्कुल नहीं हो सकता.
हम तो बचपन से चाँद को मामू देखकर ही खुश होते आए हैं और चचा सैम के इस नाटक या सच्चाई पर भी ख़ुश थे. पंडित जी तब हम भी कक्षा छः में पढते थे. जब बड़े हुए और नेट से जुड़े तो लगा कि जितनी बातें चंद्र अभियान के नाटक होने पर लोगों ने लिखी हैं, वो भी तो कंविंसिंग हैं, तब तक जब तक उनका कोई काट नहीं. और इसका काट ये नहीं हो सकता कि सब बेवक़ूफ हैं, अहमक़ हैं और दकियानूसी हैं.
फ़िल्म ‘एक रुका हुआ फ़ैसला’ ऐसी ही मानसिकता को बयान करती फिल्म है, जिसमें पंकज कपूर सरीखे लोग अंत तक मानने को तैयार ही नहीं होते सच को, क्योंकि उन्हें छ्ठी क्लास में एक सच बताया गया था और वो उसके झूठ होने की कल्पना भी नहीं कर सकता है.
 
पुनश्च: आज अमेरिका का बर्थ डे है... हैप्पी बर्थ डे अमेरिका!! 

25 comments:

संजय @ मो सम कौन... said...

आहा, लगता है अब ज्ञान विज्ञान की कक्षा लगेगी :)
अच्छा ही है, लोगों की जानकारी बढ़ेगी।

Satish Saxena said...
This comment has been removed by the author.
Satish Saxena said...

मैं डॉ अरविन्द मिश्र के कथन से शत प्रतिशत सहमत हूँ , और इस प्रकार की बहस को भी समय की बर्बादी ही मानूंगा , भारतीय गृहणिया अक्सर टीवी देखते समय इस प्रकार की बहस छेड़ती हैं !
इस तरह की सनसनीखेज ख़बरें केवल मीडिया की ख़बरें ही मानी जानी चाहियें जो अपना उद्देश्य पूरा कर लेती हैं !
अगर यह बचपना संसार का सबसे शक्तिशाली देश करता तो शीतयुद्ध के उस दौर में वह छीछालेदर होती कि अमेरिका बरसों मुंह दिखाने की स्थिति में नहीं होता !
मुझे यह बताने के जरूरत नहीं होनी चाहिए कि अमेरिका एक लोकतान्त्रिक देश है और इस लोकतंत्र में कार्य करने और प्रसाशनिक निर्णय लेने की क्या प्रक्रिया होती है , एक बैंक अधिकारी होने के नाते आप भली भांति जानते हैं !

Amit Sharma said...

धुँवा वहीँ उठता है जहाँ कुछ भी आग होती है, मतलब कुछ तो लोचा है ही इस बात में भी की चंदा मामा अभी दूर के ही है>>>>>>>>>> बाकि जवाब तो तार्किक ही होने चाहिये ना की)))))))))

सम्वेदना के स्वर said...

@सतीश सक्सेनाः
1969 से 1972 और 1972 से अब तक के बीच का सवाल अभी भी मुँह बाए खड़ा है.प्रश्न सहमत या असहमत का नहीं,वो तो उत्तर देने के बाद होगा. यहाँ तो मुँह बंद कर दिया जा रहा है. अभी तो बस इतना ही
उनकी हर रात गुज़रती है दीवाली की तरह
हमने एक बल्ब चुराया तो बुरा मान गए!

Satish Saxena said...

@ संवेदना के स्वर ,
वाह ! वाह ! गज़ब का शेर सुनाया है दोस्तों ...वाकई आनंद आ गया ! यह कब लिखा ?

Rohit Singh said...

भाई बात को सही तरीके से औऱ तर्कों से रखनी चाहिए। ये सवाल अब तक अनुत्तरित है कि अब तक दोबारा चांद की जमीं तक अमेरिका क्यों नहीं पहुंचा। चांद पर पानी भी इसरो ने खोजा।...(संदर्भ रिर्पोट अखबारों में छपी है)क्या ये सत्य नहीं है कि इराक पर हमला सिर्फ बाप की इच्छा पूरी करने के लिए एक बेटे ने कदम उठाया था. साथ ही हथियारों की खपत करने के लिए एक अनवरत युद्ध की जरुरत अमेरिका को थी। अब इस तरह के प्रशन जरुर सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं आखिर सच्चाई क्या है। जरा वैज्ञानिक इसका जवाब दें तो बेहतर है। अमेरिका के हमारे से परमाणु सौदे(समझौता नहीं) का विरोध खुद इसरो के वैज्ञानिक कर रहे हैं। क्या ये सच नहीं है। भोपाल गैस कांड भी अमेरिका के कारण ही दबा। तो एक बार तो सोचना ही होगा कि आखिर अमेरिका की नीति औऱ थामस एडंरसन लिखित संविधान में कितना अंतर है....

Arvind Mishra said...

पहले तो भाई मुझे पंडित न कहें मेरी वैसी कोई योग्यता नहीं है ..
दूसरे विज्ञान की डिग्री हासिल कर लेने से ही कोई वैज्ञानिक नजरिये वाला नहीं हो जाता
विज्ञान की डिग्रियां दो कौड़ी की हैं अगर व्यक्ति में विज्ञान का नजरिया नहीं है ...
संसार में सनकी और खब्ती लोगों की कमी नहीं है ...
हाँ आपकी कुछ दीर्घ शंकाएं हैं -
जिस अवधि की बात आप कर रहे हैं उसमें अमेरिका की प्लानिंग मंगल ग्रह पर फोकस थी ..
और चन्द्रमा कभी भी अमेरिका के अजेंडे से बाहर नहीं गया है ...
और अगर कहीं कोई गड़बड़ होती तो सबसे पहले रूस चिल्ल पो मचा देता
रूस अपने उरूज के समय भी अमेरिका के चन्द्र विजय को नकार नहीं पाया था
यह सही है की अमेरिका ने चन्द्र सतह पर मनुष्य के उतारने का उतावलापन रूस से अन्तरिक्ष होड़ के नाते ही दिखाया था और इसके बाद राजनीतिक प्राथमिकता खत्म सी हुयी ..मगर वैज्ञानिकों के अजेंडे में चाँद हमेशा रहा है
अन्तरिक्ष विजय का कोई सपना बिना चाँद पर बस्तियां बनाए नहीं पूरा होगा !
अगले बीस वर्षों में आदमी चाँद पर चल देगा ......संवेदना का एक नया स्वर लेकर ..
तब तक इंतज़ार करिए न ....

देवेन्द्र पाण्डेय said...

raar se rishte taar-taar hote hain ...
raar se pyar bhii badhta hai..
manushy chaand par jaye chahe n jaaye dharti par itna pyar badhaye ki chand dharti par utar aaye.
..meri shubhkamnaen.

zeashan haider zaidi said...

अमेरिका जैसे देश से कोई भी चीज़ नामुमकिन नहीं.
वह चाँद पर पहुँच भी सकता है,
और
चाँद पर पहुँचने का फ्राड भी कर सकता है.

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

संवेदना के स्वर. आपको इन्टरनेट पर इस तथ्य का पूरा ज्ञान जो जायेगा कि चन्द्र अभियान और अमेरिका का अन्तरिक्षीय कार्यक्रम वास्तव में शीतयुद्ध की पृष्ठभूमि में रूस की प्रतिक्रिया में जन्मा था, लेकिन वह सफल हुआ इसमें कोई शक नहीं है. अंधाधुन्द चन्द्र परिणामों ने अमेरिका को उनका प्रयोजन सोचने पर विवश कर दिया क्योंकि इनसे वस्तुतः कुछ भी हासिल नहीं हुआ सिवाय खुद पर घमंड करने के. यह भी नहीं भूलें कि कुछ वर्षों पहले ही मंगल पर रोवर आदि को सफलतापूर्वक उतारा जा चूका है. उनके सामने चाँद तो बच्चा है जी.

गुजरात में एक जैन मंदिर हैं जहाँ उनका अपना प्लेनेटोरियम है. वे यह बताते हैं की चंद्रमा पर कोई भी पैर नहीं रख सकता क्योंकि वहां देवता गण आदि रहते हैं. उन्होंने मूर्तियों और चित्रों द्वारा मौजूदा ज्ञान-विज्ञान की धज्जियाँ उड़ा कर रख दीं है. क्या आप उनके धार्मिक विश्वासों का समर्थन करेंगे?

आपने पिछले पोस्ट में मेरे कमेन्ट के जवाब में कहा है कि आज ब्लैकबेरी के जमाने में 'अमेरिकन एयरवेज़' से चाँद पर पहुँचने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. इसके जवाब में इतना ही कहा जा सकता है कि आपको कक्षा दसवीं के स्टार तक की विज्ञान को दुबारा पढना चाहिए और इण्डिया टी वी देखना बंद कर देना चाहिए.

मैं अमेरिका और उसकी नीतियों का कट्टर आलोचक हूँ लेकिन इतना भी नहीं कि इस बेसिरपैर की अफवाह पर कान देकर वैज्ञानिकता से आँखें मोड़ बैठूं.

अपने तर्कों को तकनीकी तथ्यों पर केन्द्रित करें. आपके हर संदेह का उत्तर मिल जायेगा. अभी तो आप वाकई में मूर्खतापूर्ण बहस को जारी रखने में कामयाब हो रहे हैं.

Arvind Mishra said...

@शुक्रिया सतीश सक्सेना जी और निशांत मिश्र जी ...
आप वैज्ञानिक नजरिये के पक्ष में होकर नेक काम कर रहे हैं ...
मुझे लगता है यह बहस ही बेमानी है .और ऐसे ही उठा दी गयी ..जीशान जी का भी जवाब कूटनीति सा है ..
अमेरिका की नीतियों की आलोचना एक अलग पहलू है और वैज्ञानिक उपलब्धि बिलकुल ही अलग !
हमें विज्ञान और वैज्ञानिकों पर भरोसा रखना चाहिए ..और भी कोई भरोसेमंद रह गया है क्या ?

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

संवेदना के स्वर. लिखने के लिए आपको एक और नया टॉपिक देता हूँ. हाल ही में यह जाहिर हो गया कि स्वाइन फ़्लू का भय फैलाने में अमेरिकी कंपनियों का ही हाथ था और इसका हौवा खड़ा करके उन्होंने अरबों डौलर का नफा कमाया. इसी के साथ अब कुछ वैज्ञानिक यह भी कह रहे हैं की एड्स जैसी कोई बीमारी नहीं है और न ही ऐसा कोई वायरस है. ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब एड्स जैसी कोई बीमारी है ही नहीं तो फिर उसके मुखौटे में किस बीमारी ने पिछले तीस सालों में करोड़ों लोगों को अपनी चपेट में ले लिया? शायद आपका मैनेजमेंट का अध्ययन इस विषय पर कुछ रोशनी डाल सके.

kshama said...

Is vishay pe mera abhyas to bilkul nahi hai...kya kahun?Insaan Amerika punch yah tathy ko itne dinse sach mana hai,maine hi nahi poore vishw ne,ki,use amany kar lena bhi kathin hai...dekhen,aage aage kya hota hai!

प्रवीण said...

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दोस्तों,

दुनिया में एक छोटा सा परंतु बहुत मुखर तबका है Conspiracy Theorists का...उनके हिसाब से इंदिरा गाँधी की हत्या नहीं हुई कभी, ओसामा नाम का कोई आदमी नहीं है, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर कांड अमेरिका का खुद कराया है, एड्स और स्वाइन फ्लू नाम की कोई बीमारी या इनके वायरसों का अस्तित्व ही नहीं है आदि आदि...
ऐसे ही Conspiracy Theorists का कहना है कि आदमी कभी चाँद पर नहीं उतरा और आप उनके जाल में आ गये....:(
भाई उन्होंने कुछ सवाल ही तो उठायें हैं मून लैंडिंग के बारे में...
जवाब यहाँ पर हैं:-

नासा का आधिकारिक जवाब...

एक स्वतंत्र विवेचना...

क्या वाकई आदमी चांद पर नहीं उतरा?...

अपनी बात बज एल्ड्रिन के इस जवाब के साथ खत्म करना चाहूंगा...

Aldrin was the second man to walk on the moon. Here's what he said:-

Q.How do you feel when people say you and Neil Armstrong never went to the moon?

A."Well it's a waste of my time. I don't have much respect for the people who entertain that thinking and generally am not interested in engaging in any discourse with them. All that does is encourage them and it's not going to change their thinking at all."

आभार!

Dev said...

बहुत ही दिलचस्प विषय ........सच क्या है हम तो वही जानते है जो बचपन से पढते आये है ,

Anonymous said...

प्रवीण शाह कि बात से पूर्ण सहमति । एक और भी ग्रुप हैं जो हर "होनी और अनहोनी " को nostradamus कि भविष्य वाणी से जोड़ता हैं । आप उसको भी पढ़ सकते हैं । http://www.nostradamususa.com/moonlanding.html

@सतीश सक्सेना
भारतीये गृहिणियों के प्रति आप के ख़याल जान कर अफ़सोस ही हुआ । ये सब मन कि समस्याए हैं जितनी जल्दी मुक्त कर लेगे उतनी जल्दी समाज मे समानता कि व्यवस्था होगी । अगर ये भारतीये गृहणियां ना हो तो ना जाने कितनी ब्लॉग कि बहसे ना हो , आधा समय ऑफिस मे बीते और आधा घर मे रोटी बेलने मे !!!

soni garg goyal said...

तर्क-वितर्क, लम्बी बहस , डांट-डपट सब कुछ हुआ लेकिन सवाल का ज़वाब तो अब भी नहीं मिला तो क्या इसका अर्थ ये मान लिया जाये की ये सवाल वास्तव में वक़्त की बर्बादी है ???
मुझे तो लगा था की कोई नई जानकारी मिलेगी, कोई नया सच सुनने को मिलेगा !
वैसे आपने अपनी एक लाइन में सही कहां है की ये एक राजनितिक सवाल है जिसका जवाब विज्ञान ब्लॉग में संभव नहीं !!!
हम अक्सर बचपन में सुने सच को नकारने की हिम्मत नहीं कार पाते क्योकि वही हमारी कमाई गई शिक्षा होती है और उसको झुटलाना मतलब अपने अब तक के ज्ञान को नकारना !

Arvind Mishra said...

@प्रवीण शाह जी ,लिंक देने का मेरी ओर से भी आभार , इस मामले पर अविश्वास भरे प्रश्न पूछने पर मेरी मनःस्थिति वही होती है जैसा की आपने अलड्रिन के शब्दों को उधृत किया है !

"इसे मैं अपने समय की बर्बादी मानता हूँ ,ऐसे लोगों के प्रति जो ऐसे विचार को महत्व देते हैं मेरे मन में कोई ख़ास सम्मान नहीं रहता और मैं उनसे इस पर किसी तरह की चर्चा भी नहीं करना चाहता ..इन सबसे उन्हें प्रोत्साहन ही मिलता है और यह सब उनकी विचारधारा को कतई नहीं बदलेगा "

बावजूद इसके मैं समझता हूँ संवेदना का स्वर अधिक लचीला है और वे तर्क को स्वकार करने वाले व्यक्तित्व हैं ! उनका ऐसे विवेचन के लिए सदैव स्वागत है !

Akshitaa (Pakhi) said...

बेहतरीन चर्चा....

सम्वेदना के स्वर said...

चलिये पटाक्षेप करते हैं इस अनिर्णीत चर्चा का.
फिर भी निम्न बातों को हम दोहराना चाहेंगे, ताकि सनद रहे.
1. उच्च वैज्ञानिक सोच के धनी अरविन्द मिश्र जी ने यह बताया कि अमरिका पिछले 4 दशक से दरअसल "मंगल" कार्य में संलग्न था तथा यह कार्य अभी 2 दशक और चलेगा. 2030 में आदमी चाँद पर चल देगा. नासा के कार्यकलापों की ऐसी बारीक जानकारी हमें नहीं थी.


2. यह प्रश्न भी मज़ेदार रहा कि अमरिका के इस अभियान को तब के सोवियत संघ ने चैलंज़ नहीं किया है.वही सोवियत संघ जो पूंजीवादी अमरिका के अस्तित्व को ही सन्दिग्ध मानता था. चलिये भूल जाते हैं हम, कि खुद अमरीका के भीतर यह बात आज भी उठाई जाती है.

3.एक तथ्य यह भी है कि हॉलीवुड अमरिका में है, रूस में नहीं! 1975 से 1980 तक इस प्रश्न का जबाब तकनीकी बिन्दुओं पर तर्क वितर्क करके ही तलाशा जाता रहा. परंतु जब इतना अधिक समय बीत गया तो यही प्रश्न दीगर हो गया था कि “तब हुआ” तो “अब क्यों नहीं”!

4.निशान्त भाई का सुझाव है कि हम स्वाइन फ्लू, एडस आदि विषयों पर उनके बताए अनुसार लिखें. मुश्किल यही है कि हम अहमकों की अवैज्ञानिक सोच निश्च्यात्मक नहीं है. तथ्य बदलेंगे तो हमारी सोच अपने आप बदल जायेगी. प्रश्न करना, उन्हें दरकिनार न कर उनके उत्तर खोजने को आप हमारी दकियानूसी सोच का हिस्सा कह लीजिये, हमें आपत्ति नहीं....बहरहाल हम कौन सा चैनल देखते हैं और कौन सा नहीं यह जानना चाहते हैं तो पढें हमारी पिछली पोस्ट “बुद्दू बक्से का बुद्द –लोक सभा चैनल”…. बुद्दू बक्से के ढपोरशंखी…..चौथे खम्बे में लगी दीमक...आदि.

5. Conspiracy Theory, Spin Doctrine की डिक्शनरी से निकला शब्द ही है. आज कल इसका चलन बढ़ गया है, क्योंकि रियल Conspiracy के बाद, cover up exercise के तौर पर, उदघाटित होते सत्य को दबाने के लिये, यह नाम देकर चुप करा दिया जाता है.

6. कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, जो व्यक्ति किसी एक कॉन्स्पिरेसी थिअरी में आस्था रखता है उसे दूसरी कॉन्स्पिरेसी थिअरी बकवास लगती है. ये मात्र सूचना की बात है जिसके आधार पर शायद हम सबने अपनी अपनी थिअरीज़ बना रखी हैं.

बुद्ध ने कहा था “इह पश्यगो” देखो तब जानों...सीइंग इज़ बिलीविंग...अब बकौल अरविंद मिश्र जी...2030 में जब आदमी चाँद पर जायेगा, तब इंशा अल्लाह, ज़िन्दा रहे तो हम भी ताल ठोककर मानेगें.....चन्द्र विजय को.

ghughutibasuti said...

और इस प्रकार की बहस को भी समय की बर्बादी ही मानूंगा , भारतीय गृहणिया(?) अक्सर टीवी देखते समय इस प्रकार की बहस छेड़ती हैं !
बन्धु, आप कहाँ छिपे उनकी बहसें सुनते हैं? और यदि छिपे हुए नहीं होते तो क्यों नहीं उन मूर्खाओं की बहस को सही दिशा व फिर समाधान देते?
आशा है कि आपके परिवार की स्त्रियाँ केवल टी वी व बहस पर ही समय बर्बाद नहीं करतीं, नेट पर भी करती हैं व आपकी टिप्पणियाँ भी पढ़ती व सराहती हैं। यदि ऐसा करती हैं तो कभी न कभी उनका उद्धार हो ही जाएगा। बन्धु, आप निश्चिन्त रहें।
घुघूती बासूती

शोभना चौरे said...

सतीशजी से इस कथन की उम्मीद नहीं की जा सकती |भारतीय गृहणी को अब क्या विज्ञानं की स्कूल में भी प्रवेश नहीं मिलेगा ?

स्वप्निल तिवारी said...

mujhe to sabse pahle yahi nahi samjh aa raha ki ..kuch logon ka gussa ninth cloud pe kyun ja raha hai ..agar koi ye kah raha hai ki america ka chand pe pahunchyna ek natakl tha to .... baharhaal ..salil sir ..aur chaitnya sirt ki har baat tark adharit hai .. aur haan .. bachpan ke stya ko na nakar panbe ki sthiti me hone ke paksh me diey gaye aap kje dono xample behad steek hain ... :)

मनोज कुमार said...

बहुत ही तार्किक विश्लेषण और गरमा-गरम बहस पढकर ज्ञान में वृद्धि हुई। हमारे तो पहले भी चंदा मामा थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे।

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