सम्वेदना के स्वर

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Friday, September 10, 2010

राहुल गांधी की दाढ़ी और पा(पायाति) प(पर्सुएशन इंडस्ट्री)

उम्र, शरीर और ख़ास तौर पर चेहरे से पुराने हो चुके, ए. के हंगल और ओम प्रकाश जैसे अपने देश के राजनेताओं के बीच,बॉलीवुड के आमिर खान या शाहिद कपूर जैसा कोई चाकलेटी चेहरा यदि दिख जाये, तो उम्मीद के झरने फिर फूटने लगते हैं। ऐसे में राहुल गांधी को टेलीविज़न स्क्रीन पर देखना अपने आप में एक अनूठा अनुभव ही तो है।

पिछले दिनों, जब महंगाई और कामनवैल्थ घोटालों का शोर ज़रा थमा, तो राहुल गांधी फिर अवतरित हुये। एंट्री बहुत ही धमाकेदार थी, बढ़ी हुई काली दाढी में, सफेद किंतु कुचले हुए कुर्ते पायजामे में, गौरवर्णी, यह चालीस वर्षीय युवा, जब लाल रंग के हैलीकाप्टर से नियमागिरी, उड़ीसा की पहाडियों में उतरा तो वहां के आदिवासी समूह ने खूब उत्साह से उनका स्वागत किया। राहुल गांधी ने भी अपनी पोटली से निकालकर एक तोहफा उन्हें दिया,मानो इस बार कृष्ण सुदामा के लिए कुछ लाए हों. उपहार था यह बताना कि “वेदांत समूह”का छः मिलियन टन का अल्यूमिनियम संयंत्र अब इस इलाके में नहीं लगेगा। राहुल गांधी ने इसी सभा में स्वयं को आदिवासियों का दिल्ली में नियुक्त सिपाही भी बता दिया।

इस पूरे वाकये के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक पहलू तो बहुमुखीं है तथा उन पर देश भर में चर्चाएँ भी चल ही रहीं हैं, लेकिन Headlines Today नाम के अंग्रेजी खबरिया चैनल में एक बेहद मज़ेदार चर्चा देखने के बाद हमारा ध्यान भी राहुल गांधी की “बढ़ी हुई दाढी” पर गया.
(26 अगस्त को उड़ीसा में)
टेलीविज़न चैनलों की समाचार मनोरंजन प्रवृत्ति से तो हम सब वाक़िफ़ हैं ही. देर तक इस बात पर चर्चा होती रही कि राहुल गांधी की “बढ़ी हुई दाढी” दरअसल उनकी “जुझारु राजनेता” कि छवि को “एन्हैंस” करती है। यह भी समझ आया कि उनके गुलाबी गालों वाले चाकलेटी व्यक्तित्व को अगर उनकी पूर्णता में देखा जाये तो काली चमड़ी वाले आदिवासी उनसे ख़ुद को “को रिलेट” नहीं कर सकेंगें, इस कारण बढ़ी हुई दाढी अपरिहार्य्य हो जाती है। झक्क सफेद कुर्ता जहाँ उन्हें राजनेता की छवि प्रदान करता है, वहीं जींस की पैंट उन्हे दिल्ली का सिपाही बताती सी लगती है।

इस कार्यक्रम के बाद हमारी नज़रों ने भी “पर्सुएशन इंडस्ट्री थ्यौरी”के छात्र की तरह उनका पीछा करना शुरु कर दिया और हमने बारीकी से उनके गेट अप पर नज़र रखनी शुरु कर दी। कुछ दिनों बाद ही राहुल हमें फिर टेलीविज़न पर नज़र आये. इस बार वह बिहार में एक सभा को सम्बोधित कर रहे थे, उनकी बढ़ी हुई दाढी इस बार बहुत कुछ कट-छँट चुकी थी. हमने टेलीविज़न चैनल से मिले ज्ञान का फायदा उठाते हुए अनुमान लगाया कि दाढी का यह प्रकार शहरी और ग्रामीण दोनों तरह की जनता में छवि बनाता है।
(4 सितम्बर को बिहार में)
अभी हम राजनीति की हाइब्रिड नीतियों की तरह, युवराज की बढ़ती घटती हाइब्रिड दाढी का संतुलन कुछ कुछ समझने की कोशिश कर ही रहे थे कि तीसरी बार वो दिखायी दिये कोलकाता में, वो भी एकदम सफाचट, क्लीन शेव में. कम्यूनिस्टों को उन्हीं की माँद में ललकारते हुऐ, भद्रलोक के गेट अप में!
 
(6 सितम्बर को कोलकाता में)
इस सारे घटनाक्रम ने हमें पायाति चरक जी यानि अपने पी.सी. बाबू से पिछली मुलाकात की शिद्दत से याद दिला दी जिसमे उन्होंने किसी रिसर्च का हवाला देकर “पर्सुएशन इंड़्स्ट्री” के बारे में बताया था.. “किताब, मंजन, फिल्म ही नहीं.. कौन सी नौकरी करनी है कौन सी नहीं, किस नेता को वोट देना है, किसे नहीं...कौन सी पार्टी अच्छी है, कौन सी बुरी,..हमारे विज्ञापन, फिल्में, टेलीविज़न ...सब का इस्तेमाल होता है हमें परसुएड करने में!"

इन सबके बीच, एक सवाल उठ खड़ा हुआ है कि “राजनेताओं की छवियों को भी क्या जनमानस में इसी तरह बैठाया जा सकता है?”

हाँ, एक बात तो रह ही गयी, राहुल गांधी ने इन तीनों जगह पर जो भाषण दिये उनमें एक बात सभी भाषणों में कही कि देश में दो देश हैं, एक “अमीरों का हिन्दुस्तान” है और दूसरा “गरीबों का हिदुस्तान” तथा राहुल गांधी गरीबों के हिदुस्तान के स्वयम्भू प्रतिनिधि हैं. राहुल की इस बात से फिर याद आये, पी.सी.बाबू जिन्होंने हमें “भांडिया का भांड़” कहकर अन्दर तक झंझोड़ दिया था. पी.सी.बाबू के वह शब्द कानों मे गूंज रहे थे “ऐसे लोगो को जो एक तरफ तो इंडिया का सुविधाभोगी जीवन भोग रहे हैं और दूसरी ओर भारत की भी बात कर रहें हैं उन्हें मै “भांडिया” कहता हूं...हम और आप जैसे “भांडिया के भांड”, अपनी सुविधाभोगी वैचारिक जुगाली से इतर कुछ ठोस करें तो कुछ उम्मीद जगेगी...”

राहुल गांधी देर सवेर देश की कमान हाथ में लेने ही वाले हैं….क्या उनसे यह उम्मीद लगाना गलत होगा???

26 comments:

संजय @ मो सम कौन... said...

हर अभिनेता सफ़ल नेता नहीं हो सकता लेकिन हर नेता सफ़ल अभिनेता होता है।
नैकरी के चक्कर में बैचलर रहते समय एक बार एक साथी को सुबह बिस्तर में पेंट कमीज में सौए हुये देखकर पूछा कि इन्हीं कपड़ों में क्यों सो गया कल? जवाब मिला, "यार, वो कुर्ता जायजामा इस्त्री नहीं था।" किसी अखबार में ही पढ़ा था कि लालू जी बंगले में एसी में आराम कर रहे होते हैं और जब सूचना मिलती है कि बाहर प्रेस के लोग मिलने आये हैं तो उस समय बंडी फ़तूही पहन कर (अपना भदेसपना उजागर करने) बाहर आते हैं ताकि जनता उन्हें इस वेषभूषा में देखकर खुद से जुड़ा हुआ मान ले। अब मालूम नहीं यह बात कितनी सच है लेकिन राहुल बाबा के स्थान और स्टफ़ के अनुसार बदलते गैटअप तो पी.सी. सर की बताई थ्योरी का ही समर्थन करते हैं।

संजय @ मो सम कौन... said...

सॉरी, ’कुर्ता जायजामा’ को कुर्ता पायजामा पढ़ें।

शिवम् मिश्रा said...

आपकी पिछली पोस्ट में भी काफी कुछ जानकारी मिली थी बाज़ार के बारे में और आप की आज की पोस्ट एक तरह से उसकी पूरक पोस्ट है या यह कहना गलत ना होगा कि पिछली पोस्ट में आपने theory बताई थी आर आज कि पोस्ट में राहुल गांधी नाम के गिनी पिग के माध्यम से उस theory का pratical हो गया !
बहुत बहुत आभार आपका इस क्लास के लिए !

राजेश उत्‍साही said...

आपका विश्‍लेषण मजेदार है।

VICHAAR SHOONYA said...

आपकी पिछली पोस्ट पर मिले विचारों का सुन्दर उदहारण राहुल बाबा ने अपने बार बार बदलते चेहरे-मोहरे से दे ही दिया है बस आपकी अंतिम पंक्ति पढ़कर की देर सवेर राहुल बाबा को देश की बागडोर सम्हालानी है, मन ख़राब हो गया. क्या इस देश पर घूम फिर कर वही नेहरु का गाँधी वंश का ही शासन करता रहेगा ?

मनोज कुमार said...

ये नित नई थ्योरी इज़ाद हो रहे हैं भाई।
आप तो व्यक्ति नहीं पाठशाला से मिल आए हैं।
ज़बर्दस्त विश्लेषण।
अंक-8: स्वरोदय विज्ञान का, “मनोज” पर, परशुराम राय की प्रस्तुति पढिए!

प्रवीण पाण्डेय said...

बढ़ी दाढ़ी में कर्मठता शीघ्र दिखती है।

sonal said...

badhiyaa

उम्मतें said...

पोलिटिकल इंडस्ट्री पर अच्छा आब्जर्वेशन है डाक्टर पायाति का !

Shah Nawaz said...

बढ़िया है!

सम्वेदना के स्वर said...

@ विचार शून्य जी
भावनाओं को "समझों" भाई!

सम्वेदना के स्वर said...

@ अली सा
"पोलिटिकल इंडस्ट्री" एक नया शब्द दिया है आपने, पी सी बाबू के "भांडिया के भांड" की तरह!

आपसे इस शब्द के "जुमला-हूकूक" मांग रहें हैं हम, पी सी बाबू से अगली चर्चा में इस्तेमाल के लिये!

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

तो क्या दाढी मुझे भी रखनी चाहिये

Arvind Mishra said...

खूब ढूंढा चोर की दाढी का तिनका

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत बढ़िया पोस्ट ...अच्छा विश्लेषण ...

विचारणीय

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी said...

बहुत सुंदर लिखा है।

अजित गुप्ता का कोना said...

पोस्‍ट के क्‍या कहने। आनन्‍द आया। लेकिन राहुल बाबा से यह तो कहो कि शादी कर ले और एकाध बच्‍चे भी। नहीं तो इस देश को वारिस कौन देगा? प्रियंका पर तो निर्भर नहीं है ना वे?

Udan Tashtari said...

दाढ़ी की अपनी महत्ता है. मस्त विश्लेषण है. :)

sm said...

excellent find

Rohit Singh said...

हाहाहाहाहाहाहाहाहाहा.....राजनीति में आने के बाद राहूल गांधी भी अपन लोग की तरह हो गए हैं। दाढ़ी बना ली तो ठीक है नहीं तो क्या फर्क पड़ता है। सोचते होंगे लोगो को उनसे मोहब्बत है दाढ़ी से नहीं..है भी बात सही। उनके हाथ में कमान आएगी इस पर कुछ कहना जल्दीबाजी होगी। आएगी तो कितनी बार रहेगी..ये भी अनुमान बेकार है। हाल फिलहाल कमान में आने की बात कही जा रही है। इसपर भी उत्तर प्रदेश के चुनाव से ठीक पहले या बात में कहना बेकार है।
एक बात तो है न कि कम से कम कोई नई बात तो करता है...(भले ही अब राहूल बाबा भी पुरानी बातों को लपेटने लगे हैं..क्या करें जनता नए काम को तवज्जो देगी, इस बात की गारंटी भी तो नहीं देती)

बाकी रही बात उम्मीद लगाने की....तो भईया उम्मीद पर दुनिया कायम है।

मनोज भारती said...

हमारे राजनेता पर्सुएशन में भी घाघ हैं...लोगों को फुसलाने और पटाने के लिए कितने रूप घड़ते हैं हमारे तथाकथित राजनेता । पायाति चरक के विश्लेषण में सत्यता है । काश हमारा हर नागरिक इस पर्सुएशन के फंडे को समझे और अपनी समझ को विकसित कर इन राजनेताओं के जाल में न फंसे ।

कविता रावत said...

बहुत बढ़िया विचारणीय प्रस्तुति.....

Sanjay Grover said...

Dilchasp vishleshan!

दिगम्बर नासवा said...

देर नही ... जल्दी ही कमान उनके हाथ में आने वाली है .... वैसे आ भी जानी चाहिए ... शेर आया शेर आया ... सुन तो रहे हैं ... अब आ भी जाए तो देखें .. क्या पता दम हो कुछ इस शेर में ....

अरुण चन्द्र रॉय said...

पहली बार इस ब्लॉग पर आया और पागल हो गया हूँ पढ़कर.. जो लोग हिंदी ब्लॉग्गिंग को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं उन्हें इस ब्लॉग पर आना चाहिए.. मैंने अपने मित्र मण्डली में यही बात कही थी.. राहुल जी का ए गेट अप किसी पी आर कंपनी का सुझाव से है.. यह तो हमेशा से होता ही आया है.. मार्केटिंग रीसर्च का काम ही यही होता है और राजनीति आज किसी मार्केटिंग से कम नहीं... सत्ता और संसद में नहीं रहने के वाबजूद भी श्री राम विलास पासवान जी मीडिया के चहेते बने रहे.. यह उनकी मार्केटिंग रणनीति ही है... आपको पता जरुर होगा कि.. राजनितिक पार्टियों के चुनाव अभियान का अहं हिस्सा होती हैं विज्ञापन कंपनिया.. पी आर अजेंसीयाँ... नेताओं के गेट अप तक डिजाइनर से तैयार होते हैं...
पिछली बार कांग्रेस की सफलता में कुछ योगदान उनकी बड़ी एड एजेंसी परसेप्ट और क्रेयोंस को जरुर जायेगी.... जय हो का संगीत रूपांतरण ने कांग्रेस के अभियान को बल और जोश दिया था.. यह कांसेप्ट किसी कांग्रेसी नेता का नहीं बल्कि उनकी विज्ञापन एजेंसी परसेप्ट का था...
ए़क खोजी प्रस्तुत्करण लिए आपको बधाई...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

नेता नौंटकी न करे तो जनता पूछती नहीं।
...कमाल का लेखन। बधाई।

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