कभी सोचा न था कि रोशनी और आवाज़ का जादू ऐसा भी होता है.एकबारगी सैकड़ों साल पीछे चली गई ज़िंदगी और टाइम मशीन पर सवार हम भी साथ साथ.हम यानि मेरा और चैतन्य जी का परिवार. जगह, दिल्ली का लाल किला और जिस बारे में मैं बात कर रहा हूँ, वो है लाइट एण्ड साउण्ड का प्रोग्राम. रोशनी और आवाज़ का ऐसा संगम कि मानो मुग़ल सल्तनत का हिस्सा हों हम सब. घंटे भर का प्रोग्राम बाँध लेता है सारे दर्शकों को.
अब चाहे कितनी भी कंट्रोवर्सी हो मुझे ये इतिहास (हालाँकि पढा कभी नहीं) की गवाह ईमारतें, क़िले, मक़बरे, मंदिर वगैरह हमेशा से अपनी तरफ खींचते हैं. पूरा अल्बम भरा पड़ा है ऐसी तस्वीरों से, उसपर श्रीमती जी के ताने कि इनको तो बस खंडहरों की तस्वीरें खींचनी हैं, हमारी तस्वीर एक भी नहीं होगी. और बात सच भी है बहुत हद तक.
मैं अपने मन की बात बताऊँ. मैं यह नहीं कहता कि मैं सही हूँ या ग़लत, बस ये मेरे मन की बात है. मुझे लगता है कि चित्तौड़ के क़िले के सामने मेरी पत्नी की तस्वीर रानी पद्मिनी की आत्मा का अपमान है, जैसे ताजमहल के सामने खड़ा मैं, शाह्जहाँ की बेइज़्ज़ती करता दिखता हूँ. लेकिन अगर ये बात मैंने कहीं और कही होती, बग़ैर ऊपर वाले डिस्क्लेमर के, तो लोग हँसते मुझपर. पर मुझे इसकी परवाह नहीं. वैसे भी बहुत से बेवक़ूफ़ी भरे उसूल पाल रखे हैं मैंने, एक और सही.
एक रोज़ ऐसे ही एक पुराने क़िले में घूमते हुए, मुझे एक कराह सुनाई दी. मैं घबरा गया. बग़ैर लाइट के साउण्ड सुनकर और वो भी बिना टिकट, कोई भी डर जाएगा. देखा वास्तव में उस कराह की आवाज़ उस क़िले की दीवारों से आ रही थी. अब घबराहट कम और उत्सुकता बढ गई थी. मैंने हिम्मत करके पूछा, “कौन है?”
“मैं इस क़िले का मालिक हूँ. दरवाज़े पर तुम्हें कोई नाम की तख़्ती दिखाई दी?”
“नहीं तो. क़िले के दरवाज़े पर नाम की तख़्ती… मैं कुछ समझा नहीं!”
“अरे भाई! जब इस क़िले का मालिक होकर मैंने अपने नाम की तख़्ती नहीं लगाई, तो तुम लोग क्यों अपने नाम की तख़्ती मेरी दीवारों पर लगा जाते हो. मरे लोगों की आत्माओं को तो बख़्श दो, जब हम तुम्हें परेशान नहीं करते, तो तुम क्यों हमें परेशान करते हो!”
बात चुभ गई दिल में. रात सोने गया तो नींद नहीं आई. करवटें बदलते हुए उठ बैठा और घर की बालकनी में चला आया. उस सन्नाटे में भी वो आवाज़ मेरे कान के पर्दे चीर रही थी. और तब शुरू हुआ मेरे मन के अंदर लाइट और साउण्ड का प्रोग्राम. जहाँ एक ओर सिर्फ कराह थी और दूसरी ओर न जाने कितने क़िले, स्मारक, मक़बरे और मंदिर मेरे अल्बम से बाहर निकल कर मेरे सामने खड़े थे. उनकी दीवारें, राष्ट्रीय एकता का साइन बोर्ड बनी थीं. दीवारों पर चाकू से किसी ने गोद रखा था शंकर और उसके पास ही रुख़साना,एक तरफ फिरोज़ के साथ थी जूली और जोजेफ के साथ मालती.
कितने मोहब्बत के अफसाने लिखे थे उन दीवारों पर पापू लव्स रेनू, जसबीर के दिल की तस्वीर में पैबस्त पम्मी का तीर, प्यार भरी शायरी और न जाने क्या क्या. कोयले और ईंट के टुकड़े से क़िले की दीवारों पर लिखे हुए अनगिनत अधूरे अफ़साने. लिखने वालों को कितना मज़ा आया होगा, यह सब लिखने में. हर शख्स फिल्म कुदरत का पारो माधो समझता होगा ख़ुद को, लेकिन यह नहीं सोचा कि इतिहास की धरोहर, इन ईमारतों के सीने में भी दिल धड़कता है और उन्हें भी तक़लीफ होती है, जब उनके सीने पर चाकू, कोयले या ईंटों से गोदकर कुछ भी लिखा जाता है. मोहब्बत तो एक बहुत ही ख़ूबसूरत जज़्बा है, लेकिन इसके इज़हार का इतना गंदा और बदसूरत तरीक़ा...!
मेरी नींद उस कराह ने छीन ली थी. सोच रहा था कि अपना नाम अमर करने का, अपनी मोहब्बत अमर करने का यह तरीक़ा कितना बदसूरत है और इतिहास के साथ किया गया बलात्कार भी. कौन समझाए उन्हें कि इतिहास की बुलंदियाँ इन खंडहरों की बैसाखियों के सहारे नहीं तय की जा सकतीं.
27 comments:
हाँ मैंने भी इन्हें कराहते और रिसते देखा और सुना है
बहुत अच्छा विषय उठाया है बहुत अच्छी लगी ये प्रस्तुति उसमें लिखना भूल गयी थी
बेहद उम्दा प्रस्तुति .........बेहद उम्दा पोस्ट ......एक सार्थक पहल .....सटीक मुद्दा !
कल और आज दोनों ही दिन आपने जो पोस्टे लगाई है अगर लोग उनसे सबक ले कर अपने आप को थोडा भी सुधर लें तो देश का बहुत भला हो !
आज तो दुखती रग पर हाथ रख दिया आपने. एतिहासिक इमारतों और खंडरों से हमें भी लगाव है और उन पर चिपकी ये चिप्पियाँ बहुत मन दुखाती हैं. बेहद संवेदनशीलता से लिखा है आपने. एक सांस में पढ़ गई .
बढ़िया प्रस्तुति .... आभार.
हिंदी दिवस की शुभ कामनाएं
एक बार पढ़कर अपनी राय दे :-
(आप कभी सोचा है कि यंत्र क्या होता है ..... ?)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html
शाश्वत समस्या है।
पुराने खंडरों में घूमने का एक नया अंदाज़.............
अच्छा लगा......
सच कहा आपने। बेवकूफी की हद है।
लोगों को जागरूक करती रचना। बहुत सही कहा आपने। इस तरह से हम अपने ऐतिहासिक धरोहर के साथ अन्याय ही तो करते हैं।
कुछ लोगों को अपने ऐतिहासिक इमारतों के महत्व का पता नहीं होता। वे आत्मकेंद्रित होकर जिंदगी बिता देते हैं। इस तरह की हरकतों पर सजा मिलनी चाहिए।
ये ख्याल कि मेरा मौजूदगी साबित हो याकि मैं इतिहास में खुद बखुद नक्श हो जाऊं ? के लिहाज़ से एतिहासिक धरोहरों से छेड़खानी सरासर ज़ुल्म है ! मसला ये कि बाजू में खड़े होकर फोटो खिंचवाने से अगर ये अभिलाषा पूरी हो जाये तो भी चलेगा क्योंकि इसके नक्श बंदे के पर्सनल एल्बम के अलावा कहीं और दिखाई नहीं देते पर...जिस लम्हा खुद का आड़ा टेढापन पुराने वक़्त पर जबरिया थोपा जाये उसे बदतमीजी के सिवा और कोई नाम देना मुश्किल है ! आपने इसे बलात्कार कहा, मैं सहमत हूं !
एक सुन्दर ,सार्थक पोस्ट की मुबारकबाद क़ुबूल फरमाइए !
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ऐतिहासिक धरोहर का सम्मान करना चाहिए। काश हमारी युवा पीढ़ी इस बात को समझ सकती। साथ में जाने वाले बड़े बुजुर्ग बच्चों को इस शर्मनाक हरकत से रोक सकते हैं। सरकार को भी ऐतिहासिक जगहों पर कुछ नोटिस बोर्ड लगाने चाहिए की ' दीवारों पर लिखना मन है ' आदि।
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क्या कहें..समस्या तो है!
हिन्दी के प्रचार, प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है. हिन्दी दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं साधुवाद!!
विकराल समस्या है…………………और उपाय का पता नही………………गंभीर और सार्थक आलेख्।
बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से, आप इसी तरह, हिंदी ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
जागरूक करने वाली पोस्ट और लिखने का तरीका भी बहुत संवेदनशील ...काश इमारतों की दीवारों की कराह वो लोंग सुन सकें जो इस धरोहरों को गंदा करते हैं ..
pichhle hafte main bhi gai thi red fort ye gandagi har jagah bikhri hui hai... apni viraasat apne haanth se tabaah kar rahe hai
Sach...bada dukh hota hai,jab aitihasik imaraton pe istarah naam likhe milte hain..ek karah mere dilse bhi nikal gayi!
अच्छे विषय पर सार्थक लेखन के लिए आभार।
कई बार मुझे भी लगा है कि इन मुर्खों ने पूरी दीवार ही गंदी कर दी!
बेहतरीन पोस्ट.
सार्थक लेखन...बधाई.
ऐतिहासिक स्मारकों की सम्वेदना समझने और समझाने के लिए धन्यवाद !!! मुझे भी पीड़ा होती है जब इस प्रकार के कृत्यों से इन स्मारकों पर प्रहार होते हुए दिखाई पड़ता है...और खुशी होती है जब आप जैसा सम्वेदनशील कोई मित्र मिल जाता है जो इन ईमारतों की कराहों को सुन सकता है ।
अच्छा लिखा आपने ....सुन्दर प्रस्तुति.
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'पाखी की दुनिया' - बच्चों के ब्लॉगस की चर्चा 'हिंदुस्तान' अख़बार में भी.
ऐसे कई स्मारक देखे है जहां शेरो शायरी और आज के लैला मजनू के किस्से लिखे रहते है और उस पर आने वाले आमिर खान जी का एड की हमें इन इमारतो को गन्दा नहीं करना चाहिए क्योंकि ये हमारी रष्ट्रीय धरोहर है किसी काम का नज़र नहीं आता क्योंकि आज जब ये प्रेमी युगल मंदिरों को नहीं बक्शते तो इन इमारतो को कैसे बक्श सकते है ! कुछ साल पहले की बात है जब कृष्ण की नगरी वृन्दावन गयी थी वहाँ के कई मंदिरों में ऐसे ही फ़साने पढने को मिले बड़ी हैरत हुई थी देख कर क्योंकि मंदिर की दीवारों पर मैंने पहली बार ही ऐसा सब देखा था ! पता नहीं हम कब सुधरेंगे !
शर्मनाक।
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ब्लॉगर्स की इज्जत का सवाल है।
कम उम्र में माँ बनती लड़कियों का एक सच।
हमारा एक कमीना नारा है....हम तो नहीं सुधरेंगे......
ये चम्पू प्रजाति के प्राणी कहीं भी अपना नाम लिखकर या ऊटपटांग चित्र बनाकर ख़ुश होते हैं कि वे भी अब इतिहास में याद किये जायेंगे ... दो हज़ार साल बाद उनके वारिस आयेंगे और पम्मी-बिजेंदर, नीलू-रमेश, रुख़साना-हामिद का नाम पढ़कर उनके नाम के कसीदे पढ़ेंगे । न जाने कितनी इमारतों की इन चम्पुओं ने ऐसी कम तैसी करके रख दी है ।
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