सलिल वर्मा जी के ब्लॉग,
चला बिहारी ब्लॉगर बनने, पर सुश्री सोनी गर्ग का कमेंट आया जिसमें उन्होंने नई फिल्म राजनीति का एक सम्वाद उद्धृत किया था, जिसे नसीर साब ने फिल्म में कहा है. यह सम्वाद बहुत प्रभावशाली था और कहीं न कहीं हमारी भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करता दिखाई दिया. इस कारण हमने सोचा कि इस फिल्म को देखा जाये, हमारी इस योजना में “
गूंज-अनूगुंज” ब्लॉग के मनोज भारती भी जुड़ गये.
फ़िर क्या था हम तीनों (सलिल, चैतन्य और मनोज भारती) एक साथ एक ही शो में यह फिल्म देखने गए – मनोज भारती हरियाणा के एक शहर अम्बाला में, चैतन्य चंडीगढ़ में और सलिल ने दिल्ली में यह फिल्म देखी. फिल्म देखने से यह पोस्ट लिखे जाने तक हमने इस विषय पर एक लम्बी परिचर्चा की, और इसे ही रूप दिया एक ‘लघु ब्लॉगर्स मीट’ का. इसे हमारी समीक्षा कह लें, परिचर्चा कहें या बातचीत. बिना किसी के विचारों से प्रभावित हुए, एक बेबाक बातचीत फिल्म “राजनीति” पर.
कथा का आधारः
मनोज भारती: प्रकाश झा ने इसे भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में बनाया है और इसके कुछ पात्र महाभारत से प्रेरित हैं।
चैतन्यः फिल्म के मुख्य पात्र पृथ्वी, समर और वीरेंद्र, साथ में सूरज महाभारत के पात्रों की तरह ही थे, परंतु घालमेल इतना था कि कौन कौरव है और कौन पाण्डव, इसका पता अंत तक नहीं चला. दरअसल बिना कृष्ण की इस महाभारत से किसी भी तरह की सम्वेदनशीलता स्थापित नहीं हो पाई, फिर बिना कृष्ण के महाभारत हो भी कैसे सकती है ?
सलिल वर्मा : कथानक का आधार महाभारत से प्रेरित दिखाया गया है, किंतु फिल्म के मध्य में सिर्फ गॉड फादर है. अतः कहानी एक राजनैतिक प्रकरण न होकर एक गैंग वार होकर रह गई है.
राजनीतिः
मनोज भारती: यद्यपि फिल्म को भारतीय राजनीति के वर्तमान दौर का दर्पण कहा जा रहा है, लेकिन फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है, जो यथार्थ से परे लगता है ।
चैतन्यः मुझे लगता है प्रकाश झा की समस्या यह रही होगी कि सैंसर बोर्ड की कैंची के चलते वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर सीधा-सीधा वो दिखा नहीं सकते थे, इसी कारण उन्होनें महाभारत का माध्यम चुना.
सलिल वर्मा : यह फिल्म न तो राजनीति पर प्रकाश झा की कमेंटरी है, न किसी राजनैतिक समस्या की ओर इंगित करती है, न कोई समाधान बताती है, न किसी व्यवस्था का चित्रण करती है.
महिला चरित्रः
मनोज भारती: नारी का राजनीति के लिए इस्तेमाल किया गया है। उसकी पुरूष प्रधान समाज में आज भी कोई व्यक्तिगत सोच नहीं है और वह पुरुष के हाथों की कठपुतली है। बल्कि नारी भी महत्वाकांक्षा को पूर्ण करने के लिए कुछ भी करने को तैयार दिखाई पड़ती है।
सलिल वर्मा: अभिजात्य वर्ग की महिला भी शोषण का शिकार होती दिखाई गई है, एक ओर राजनैतिक सूझबूझ वाली स्त्री, एक घरेलू महिला बनकर रह जाती है, दूसरी ओर एक स्त्री विवाह के व्यापारिक सम्बंधों की बलि चढ़ जाती है. मरी हुई सम्वेदनाओं की लाश दिखती हैं सारी महिलाएँ.
चैतन्यः इसे मैं देश, काल और परिस्थितियों से परे, नारी जीवन की विडम्बना ही कहूँगा कि जब नारी पुरषोचित कार्य करती है, तभी उसका संज्ञान लिया जाता है. यह फिल्म भी उसी दृष्टिकोण को उजागर करती है.
दलित राजनीतिः
सलिल वर्मा: यहाँ फिल्म वास्तविकता दर्शाती है कि दलितों का इस्तेमाल सिर्फ वोट हासिल करने के लिए किया जाता है. कोई राजनेता उनको दुत्कारने के लिए इस्तेमाल करता है, तो कोई सत्ता का लालच या भीख देकर.
मनोज भारती: राजनीति का केंद्र दलित और गरीब जनता है, जिसके वोट हासिल करने के लिए उसे रोटी से लेकर सत्ता में भागीदारी तक के लालच देकर उसे गुलाम बना लिया जाता है । सत्ताधीश और राजनीतिज्ञों द्वारा जनता के वोटों के लिए उसे वास्तविक मुद्दों यथा शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से दूर ही रखा गया है ।
चैतन्यः सूरज (अजय देवगन) की दलित परिवार में परवरिश देख कर लगा कि शायद फिल्म का यह पात्र सर्वहारा की आवाज़ बनकर कानु सान्याल और चारु मज़ुमदार की विचारधारा के सामाजिक और राजनैतिक पहलू को टटोलेगा. परंतु सूरज अपने राजनैतिक इस्तेमाल को रोक नहीं पाया और उसका पूरा किरदार पिट गया.
संदेशः
चैतन्यः फिल्म में दिखाया गया निराशावाद न जानें क्यो मुझे वास्तविक लगा. जैसे व्यव्स्था में सहज हो चली अराजकता, सिर्फ विदेशी महिला को झकझोरती है. बाकी सब उसे कब से स्वीकारे हुए लगे. फिल्म में इतने खून-खराबे के बाद लगा कि न्याय व्यवस्था, विधायिका के सामने आत्म-समर्पण कर चुकी है.
मनोज भारती: इस फिल्म को देखने के बाद कोई संदेश नहीं मिलता। क्योंकि फिल्म में शुरु से लेकर अंत तक सत्ता को पाने के लिए हिंसक झगड़े दिखाए गए हैं और दोनों ही पक्षों में कोई पक्ष आदर्श दिखाई नहीं पड़ता । दोनों एक ही स्तर पर खड़ें है और सत्ता-लोलुप है । उद्देश्य मात्र स्वयं को ताकतवर बना लेना है । यह फिल्म समाज में संवेदनाओं को निरस्त करती है और जीवन में हर प्रकार के धोखे, विश्वासघात और क्रूरता की वकालत करती है ।
सलिल वर्मा: ‘हिप हिप हुर्रे’ जैसी खेल प्रधान फिल्म के बाद, उनकी फिल्मों के केंद्रीय विषय राजनीति, विशेषतः बिहार की राजनीति रहा है. फिल्म ‘दामुल’, ‘मृत्युदण्ड’ और ‘गंगाजल’ के बाद, उनकी नवीनतम फिल्म ‘राजनीति’ से यही अपेक्षा थी कि यह फिल्म राजनीति में व्याप्त अपराध अथवा राजनीति के कई अनछुए पहलू को उजागर करेगी. लेकिन अपेक्षाएँ धराशायी हो गईं. एक व्यावसायिक फिल्म से संदेश की आशा व्यर्थ है.
तकनीकी पहलूः
सलिल वर्मा: प्रकाश झा एक अच्छे निदेशक हैं, जो इस फिल्म में दिखाई देता है. फिल्म के सारे कलाकार मँजे हुए हैं और उनका अभिनय त्रुटिहीन है, फिल्मों में अपनी पहचान बनाते रनबीर कपूर ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है. लम्बे अन्तराल के बाद मनोज बाजपेयी की वापसी स्वागत योग्य है. महिला चरित्र अपनी अपनी भूमिका सधे ढंग से निभाती दिखाई देती हैं. प्रकाश झा के सम्वाद स्तरीय हैं.
चैतन्यः एकाएक, मल्टीप्लैक्स सिनेमा हाल में दिखायी जाने वाली फिल्मों का तकनीकी पहलू तो बहुत ही प्रभावी हो गया है. डॉल्बी सिस्टम के साथ तो ऐसा लगता है कि हम घटना स्थल पर ही खड़े हैं.
मनोज भारती: फिल्म तकनीकी रूप से सशक्त है । फिल्म में भीड़ के दृश्यों को तकनीक के माध्यम से फिल्माया गया है । फिल्म की गति तेज है । फिल्म के आरंभ में कम्मेंटरी के माध्यम से फिल्म की भूमिका दर्शक को फिल्म को समझने और उसके कलेवर को समझने में मदद नहीं कर पाई । दर्शक कुछ समय तक असमंजस में रहता है । फिल्म में गानों की सिचुएशन नहीं है...एक गाना फिल्म में किसी तरह से डाल दिया गया है ।
अंतिम निर्णयः
चैतन्यः पैसा वसूल तो नही कहूँगा, क्योंकि लगभग दो सौ रुपये खर्च हुए. हां, घर पर बैठकर उन मुए समाचार मनोरंजन चैनल देखने से तो कहीं अच्छा अनुभव था.
मनोज भारती: फिल्म में हिंसा और रक्तरंजित खुलम-खुला राजनीति है, जिसे शायद राजनीति न कहकर गंदी राजनीति ही कहना उचित होगा । प्रकाश झा सरीखे मंझे हुए फिल्मकार ने किस उद्देश्य से बनायी है...यह तो स्पष्ट नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि जनता को राजनीति का घिनौना चेहरा जरूर देखने को मिल जाता है ।
सलिल वर्मा: एक छोटी सी प्रतिक्रिया देने को कहा जाए तो यह फिल्म न तो राजनीति पर प्रकाश झा की कमेंटरी है, न किसी राजनैतिक समस्या की ओर इंगित करती है, न कोई समाधान बताती है, न किसी व्यवस्था का चित्रण करती है. इस फिल्म को धर्मात्मा, दयावान, सत्या और सरकार जैसी फिल्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है, किंतु आज का एम. एल. ए., आँधी और इंक़लाब जैसी फिल्मों की श्रेणी में नहीं.